आत्म - विद्या भाग - १ | Aatm - Vidya Bhag - 1
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
10.72 MB
कुल पष्ठ :
360
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about उदयलाल काशलीवाल - Udaylal Kashliwal
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)चर्णोश्रम-प्रतिपाठन । थ
अत एव मनकी इस संकल्प-विकल्पात्मक प्रवृत्तिका नियमन करना
: आत्म-ज्ञानका पहला मार्ग है । यह ज्ञान हो. जाने पर यह माठूम हो
धर कक चर च्खि के
: जाता हैं कि आत्मा केसा शुः्ध-चुद्ध है । इसके बाद अन्तमें
* ब्राप्माइदमस्मि * । --सारायणोपनिषद्ू ।
इस अवस्थाका अनुभव प्राप्त होता है। पंडित गोरीशेंकर इसी पूर्णी-
चस्था तक पहुँच चुके थे । उन्होंने अपने वानप्रस्थाश्रममें एक-बार
असिद्ध शार्मण्य पंडित मोक्षमूलरको एक पत्र लिखा था । उसका एक
गअवतरण नीचे दिया जाता हैं । इसके पढ़ने पर स्पष्ट मादूम हों जायगा
कि उनमें आत्म-ज्ञान कैसा भरा हुआ था। महाशय गौरीशंकर संन्यास-
अहणके पहले शार्मण्य पंडित मोक्षमूलरको लिखते हैं:--
* स्वरूपानुसन्धान नामक वेदान्त-शाख्र-विपयक अपना अन्य .मैंने
आपके पास पहले भेजा ही है । उससे आपको सहज ही. माठूम हुआ
होगा कि में त्राह्मण-कुठोत्पन्न होनेके कारण उक्त अन्थमें कहे हुए
तच््वोंका अनुभव सचमुच ही प्राप्त कर रहा हूँ । हमारे वैदिक धर्ममें
वार आश्रम कहें हैं ओर द्विज जातियोंको कमझाः उनमें दूसरा गहस्था-
श्रम हैं । और न्यूनाधिक ममाणसे इसका अनुभव समीकों होता है |
'परन्तु तीसरे और चोथे आश्रममें प्रवेश किये हुए छोग विरले ही. मिलते
हैं ! ईश्वर-कपासे में शाख्रकी आज्ञानुसार वानप्रस्थका अनुभव ले रहा
हूँ । परन्तु अब शाक्ति-पात होने ठगा है, अत एव मैं चतुर्थाश्रम शीघ्र
'ही स्वीकार करूँगा । उस आश्रममें जाने पर में जगत्के सम्पूर्ण सुख-
'डु्सोसि मुक्त हो जाऊँगा और फिर मेरे छिए ऐहिक इति-कर्तव्यता कुछ
भी न रहेंगी । मेंने जगतका व्यवहार साठ वर्ष तक किया; अब संन्या+
साधम अहण करना छोड़ कर और कोई कर्तव्य मुझे नहीं रहा । इस
आश्रममें शंक्रराचार्य आदिं प्राचीन महान तच्व-वेत्ताओंके दिख़ठाये हुए
न्मार्गोसि में परमात्मासे जीवात्माकी एकता करनेमें समर्थ होऊँगा । यह
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