जब आकाश भी रो पडा | Jab Akash Bhi Ro Para

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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शक को शक संन्यासियो के अतिरिक्त कोई भी याचवक ढू ढ़ने पर नहीं मिलता था । देश मे दरिद्रता नाम तक को न थी। आहार- विहार की चिन्ताओं से विमुक्त नर-नारी या तो शिल्ल्प- कला और दस्तकौशल मे पारगतता श्राप्त करने का प्रयत्त करते थे या फिर श्रद्ज्ञान अध्यात्मदशन और योगाभ्यासभे तल्लीन होकर संसार की भौतिक और देविक विभूतियों का साक्षात्कार करते थे । तत्कालीन विदेशी पयंटको ने स्पष्ट शब्दों मे भारत की प्रशंसा करते हुए लिखा है -- सारे देश मे एक सिरे से दूसरे सिरे तक कोई स्वणे उछालता हुआ चला जाय तो भी चोर उसे संत्रस्त नहीं कर सकते लोग अपने घरों मे ताले नहीं लगाते क्योंकि इसकी आवश्यकता ही नहीं थो । अभाव न होने पर अप- राघ की वृद्धि नददीं हुआ करती । सम्राटों और राजाओं की कौन कहे उन दिनों तो कूषि-वाशिज्य-रत वैश्यों तक के घर स्वणे-सुद्राओं और मणि-माणिक्यों से भरे रहते थे और जाद्यणों का तो कहना ही कया बे तो सम्राटों के भी पूज्य थे । खाद्य और वस्त्रालंकारों मे जो सबसे उत्तम बहुमूल्य और नयनासिराम वस्तु होती थी वद्दी ड्रेव-भोग्य समझी जाती थी और ब्राह्मणों को दी देवताओं का सान्निध्य और सायुज्य प्राप्त था। यही कारण था कि हमारे मन्दिरों और १. फ़ांडियान की भारत-यात्रा ।




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