चक्रवाल | Chakravaal

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रामधारी सिंह 'दिनकर' ' (23 सितम्‍बर 1908- 24 अप्रैल 1974) हिन्दी के एक प्रमुख लेखक, कवि व निबन्धकार थे। वे आधुनिक युग के श्रेष्ठ वीर रस के कवि के रूप में स्थापित हैं।

'दिनकर' स्वतन्त्रता पूर्व एक विद्रोही कवि के रूप में स्थापित हुए और स्वतन्त्रता के बाद 'राष्ट्रकवि' के नाम से जाने गये। वे छायावादोत्तर कवियों की पहली पीढ़ी के कवि थे। एक ओर उनकी कविताओ में ओज, विद्रोह, आक्रोश और क्रान्ति की पुकार है तो दूसरी ओर कोमल श्रृंगारिक भावनाओं की अभिव्यक्ति है। इन्हीं दो प्रवृत्तिय का चरम उत्कर्ष हमें उनकी कुरुक्षेत्र और उर्वशी नामक कृतियों में मिलता है।

सितंबर 1908 को बिहार के बेगूसराय जिले के सिमरिया ग

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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€ विरोध था। स्मरण रहे कि पौराणिक हिन्दुत्व धर्म की कवित्वपूर्ण व्याख्या है एवं ईसाइयत श्ौर इस्लाम में भी जो भक्ति और रहस्यवाद के तत्व हैं वे कवित्व को प्रेरित करनेवाले हैं। किन्तु जब हिन्दी-प्रान्त स्वामी जी के उपदेशों के प्रभाव में आये तब साहित्य के अ्रतीन्द्रिय संस्कार जो कल्पना को विचरण का शवकादय देते हैं व्बनें लगे। स्वामी जी के उपदेशों का काव्यमय रूप पं० नाथूराम दार्मा शंकर की रचनाओं में प्रकट हुश्रा । किन्तु हिन्दी के सबसे बड़े कवि श्री मेथिलीशरण गुप्त यद्यपि सनातन धर्मावलम्बी हैं किन्तु स्वामी जी के उपदेशों के संस्कारगत प्रभावों से वे भी न बच सके ।. साकेत के राम स्वामी दयानंद के कृण्वन्तो विद्वमायेंमू का नारा लगाते हैं श्रौर गुप्त जी का अधिकांश साहित्य उस संयम को ध्यान में रख कर विरचित लगता है जिसका उपदेश स्वामी दयानन्द ने दिया था । इसके विपरीत बंगाल में नवोत्थान का रूप ब्रह्म-समाज था जिसके भीतर ईसाई भक्ति श्रौर हिन्द वेदान्त दोनों का मिश्रण हुआ था।. साथ ही ब्रह्म-समाज यूरोपीय संस्कारों का श्रवरोध न करके उन्हें हिन्दुत्व में पचाना चाहता था । उसके भीतर भक्ति का गहरा पुट था शभ्रौर रहस्यवाद की प्रेरणा भी । कोई श्राइचयें नहीं कि उसके कवि रवीन्द्रनाथ हुए ॥ स्वामी जी द्वारा प्रवतित पवित्नतावादी श्रान्दोलन यदि समय पाकर शिथिल न हो गया होता तो हिंदी में छायावादी भ्रांदोलन उस जोर से श्राता या नहीं इसे संदिग्ध मानना चाहिए। किन्तु शिथिल होने पर भी छायावाद-काल में यह भान्दोलन कभी भी इतना शिथिल न हुआ कि कविगण उसके झ्ातंक को बिलकुल भूल जायेँ । यह बात छायावादी कवियों की नारी-भावना में खुलती है। रवीन्द्रनाथ में फिर भी कलाकारों का यह नैसगिक साहस विद्यमान था कि वे विजयिनी-जैसी उल्लंग श्छंगार की कविता लिखें अथवा स्तन दीषंक देकर पद्यों की रचना कर दें । किन्तु छायावादी कवि श्रपनी वासना की अभिव्यक्ति खुल कर नहीं कर सके। जिस भय से द्विवदी युग के कवि कामिनी नारी का ध्यान करने से घबराते थे उसी भय के मारे छायावादी कवि भी प्रत्यक्ष नारी के बदले जुहीं की कली अथवा विहंगिनियों का आश्रय लेकर अपने भावों का रेचन करते रहें। छायावाद-काल की नारी-भावना कुंठित-सी लगती है। यौन-वासना द्विवेदी-युग से दमित चली भ्रा रही थी १ छायावाद-काल में आ्राकर वह फूटी तो भ्रवद्य किन्तु इस प्रकार नहीं जिसे हम स्वाभाविक कह सकें ।. छायावादियों की वासना उन्हें कुरेदती भी है प्र श्रपनी ककन्डन




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