श्री माण्डूक्योपनिषद | Shri Mandukya Upanishad

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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५ होता है । यहीं सिद्धान्त अयम्‌ में निद्ित है अयम्‌ क द्वारा ही दार।र प्राण, अन्त.करण, ज्ञानेन्दिय, कर्मे न्द्रिय समुदाय द्वारा निर्मित, आत्मा में आरोपित मैं-मे कर वोलने वाला जीवत्व है जो सबकों अपने आप मे अपरोक्ष हे । इस अपरोक्ष मे को अयम्‌ कहा हैं तथा आत्मा के साथ इसको मिलाकर अयमात्मा नाम दिया गया है। यह आत्मा या अयमात्मा वस्तुत. ब्रह्म ही हूँ 1 वेद का उपनिपद्‌ भाग ही वेदान्त कहलाता है उसी को महर्पि व्यास ने ब्रह्म सुत्र अथवा उत्तरम मासा या वेदान्त सुत्रो मे ममानु- सार विपय श्रम से विवेचन किया है । भागे चलकर गीता भी उप- निपदों से दुद्दो गई है । इस प्रकार उपनिपद्‌ गीता और ब्रह्म सूत्र यही चेदान्तत्रयी कहलाती है । वस्तुत. उपनिपद्‌ ही वेदान्त है। प्रत्येव उपनिपद्‌ अपने आप मे स्वतन्न है तथा ब्रह्म तत्व को अपनी-अपनी दली के अनुसार आत्मा के साथ एक रूप करके अपरोक्ष कराती है। कई उपनिपदो मे अनेक आस्यानों द्वारा ब्रह्मात्मेवय ज्ञान को अनेव दैलियो से प्रकट किया है। हाँ इतना अवध्य है उपनिपदों का प्रति- पाद्य विषय ब्रह्मात्मैव्य ही हे । यद्यपि अनेक प्रतिन्रियावादी आचार्यों ने उपनिपद्‌ साहित्य वा अर्थ अपनी-अपनी रुचि के अनुसार करके अनेक सिद्धान्तों को जन्म दिया है परन्तु वे सिद्धान्त तर्क और अनुभव की तुला पर पुरे नहीं उत्तरने फिर भी सस्कारों की विचित्रता से उन्दी-उन्द्दी सिद्धान्तों को वादी व॒न्द लेकर आग्रह वरके बैठे हुए है । “सोश्यमात्मा चतुप्पादू” यह आत्मा जोकि ब्रह्म है, ** है, अक्षर है, इद सवेम्‌ है चार पाद वाला है । इसके चार पाद गाय, भस, वकरी की भाँति नहीं है। अथवा रुपये की चार चवन्नियों की भाँति भी नहीं है। यहाँ पर पाद का अर्थ समझने के लिये गानों हुई चार, अवस्थाये । तीन पाद माया है और चतुर्थ उसका श्रधिप्ठान है । जिस प्रकार मेंढक या मण्डक को अपने आप जहाँ विराजमान है उससे आगे किसी निश्चित स्थान पर पहुँचना है तो वह तीन छलागे लगारर चौथी छलाग में निश्चित जगट्ट पहुँच जाता है । ठीक इसी प्रकार माण्डवयोपनिपद की थषली है। मण्डूक था गेढफ का भाँति




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