साम्राज्य का वैभव | Samrajya Ka Vaibhav

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अशसिमान १५ घोये दसी पानी से छुल्छा किया उसी में थुझा और वही घड़े में सर झोंपड़े में रखकर रोटियाँ बाँध टोछी में जा भिछी और सब छगे अँधेरे ही मीछ की ओर चढ पड़ीं । रग्घू वठा और फकाम-वाम से फारिश होकर कारखा ने की ओर चढ दिया और अन्त में चम्पा ने ही बाछक को गोद में छिया और भीख साँगने निकछ पड़ी । करीब दो बजे जब चम्पाबाई भीख के आटे की रोटियाँ थापकर चूदहे पर बठी थी बूढ़ा बैरागी रोज़ की तरह ढसके सामने था बैठा आर बात चढ पढ़ी । प्सामा एक बात कहूँ चस्पा ने अपने सूखे चेहरे को उसकी तरफ़ फिराकर कहां । देखने से छगता था जेसे फूलेवाढी आँख से वह जयादा देखती थी । क्या है? चस्पा बूढ़े ने दो स्वरों में छोटा-सा वाक्य कहा । मैं कहूँ अपने बाप-दादा सदा से क्या करते आये हैं? उसने बात शुरू की । पमगवान्‌ की दया पर रहे हैं। और क्या ? बूढ़े ने शंकितनसा उत्तर दिया तो हम किसी के नौकर-सजूर तो नहीं । बुढ़िया ने चृटहे में पूँक मारते हुए कहा । बूढ़ा रोटी खाता हुआ बोछा--नहीं हर्गिज नहीं । अपना-अपना कास है। मगर हम किसी के नौकर नहीं हैं । जिसने दिया उसका सा न दे कछ देगा । बिलकुछ न देगा तो परसात्सा उसे ही न देगा । मगर हम किसी के चाकर नहीं हैं । मन करेगा साँगने जायेंगे से करेगा अपने घर रहेंगे । एक घूँठ पाती पिया और फिर रोटी चबाने छगा | बेरागी के बाल सफ़ोद थे । उसकी मुँछें सफोद थीं दाढ़ी सफोद थी भीं भी सफ़ेद थी । इसका घुढ़ापा एक शख् था । जुडे का भीख माँगने का ढंग इतना छाजन्नाब था कि बस्ती के और ढोग जब खाछी लौटते थे बूढ़ा तब भी कुछ-न-कुछ छेकर ही छोटता था । बूढ़े ने कभी अपने छिए बचाकर




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