हिंदी नाटक साहित्य का इतिहास | Hindi Natak Sahitya Ka Itihas

Hindi Natak Sahitya Ka Itihas by सोमनाथ गुप्त - Somnath Gupta

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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दिन्दी नाटक-साहित्य का झारंभ चर चचरित्र-निमाण में सहायता सिली है । साधारण जीवन की समस्याओं को लेकर ये नाटक नहीं लिखे गये । अन्य रचनाओं को नाटक न मानने के कारण नाटक के संक्षिप्त लक्षणों का उल्लेख आरंभ में हो चुका है। उनको 'ध्यान में रखते हुए हिन्दी में नाटक नाम से प्रचलित पुस्तकों पर दृष्टि जाती है तो यही कहना पड़ता है कि उनमें नाटकीकरणु-कला का असाव है । न्यालोच्य काल के नाटकों (हुनुमन्नाटक, समयसार नाटक, करुशामरण नाटक, शकुन्तला-उपास्यान, समातार नाटक ,) में कथावस्तु का नाटकीय 'विकास नहीं दिखाया गया । उनकी कथावस्तु केवल छन्दोवद्ध 'माख्यान हैं जो प्रवन्ध-काव्य की कोटि के हैं। ये सब रचनायें कविता में हैं । इनमें यान्नों के प्रवेश, प्रस्थान का कोई संकेत नहीं, अंक-विभाजन और इश्य- परिवर्तन का कोई चिह्न नहीं । अनेक स्थानों पर गति-निर्देश के लिए भी इसी प्रकार छन्दों का सहारा लिया गया है जिस प्रकार प्रबन्ध काव्य में होता है । नाटक में लेखक मंच से प्रथक रहता है। वह सब पात्रों में विद्यमान रहता है परन्तु स्वयं एक पात्र नहीं चन जाता । उल्लेख्य रचनाओं में लेखक स्वयं झनेक स्थानों पर एक पात्र बन गया है । इसका परिणाम यह हुआ है कि उसकी अलनलुपस्थिति में आगे की कार्य गति असंभव हो जाती है। जब तक लेखक का वक्तच्य, जो वास्तव में एक अंश को दूसरे अंश से जोड़ने का साधन है, नहीं हो जाता तब तक गाड़ी छागे को नहीं खिसकती । ये रचनायें वास्तव में एक म्कार के प्रवन्ध-काव्य हैं अथवा अधिक से अधिक नाटकीय-काव्य २ एघ्ाएव्ट ०४ ) हैं, जिनकी कथा-वस्तु का विभाजन सर्ग- चबद्ध परस्पय पर नस होकर साटक की झंकवद्ध परम्परा पर कर दिया गया है और यह सूचना भी कि अमुक अंक समाप्त हुआ, एक अंक के समाप्त होने पर ठीक उसी प्रकार मिलती है जिस प्रकार प्राचीन संस्कृत के प्रवन्ध-काव्यों में सर्गों की ।




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