ब्रजनिधि - ग्रन्थावली | Brajnidhi Granthavali

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १६ ) छिपी सेहि सुखि भें सिक्के विककि दुरावे गात । नागरिदास थास उसगे पिय हिए ऊकलापात ॥ २ ॥ नागरीदासजी की बहुत सी रचनाओं के बीच वा अंत में तथा नागर-समुघ्य के झंत में रसिक-बिहारी # के झाभाग (उपनाम) से जयपुरी बे।ली के बहुत से ध्नाखे पद हैं जिनकी रचना बहुत मैंजी हुई रचच्छ झार मनार॑जक है । जिन रसिकों को इस बाली के उत्तम पदों का संग्रह करने की इच्छा हे वे सहज दही इस नागर-समुच्चय से तथा श्रजनिधिजी के पढें से जा इस ( श्रजनिधि-ध्ंथावली ) भंथ में छपे हैं ले सकते हैं । न्रजनिधिज्ञी श्रौर नागरीदासजी के श्रंथ-नामों में भी कहीं कहीं साम्य है । उदाहरणाथे इनकी श्रीन्जनिधि-मुक्तावली है ते उनकी पद-मुक्तावली । इन्होने फाग-रंग बनाया है तो उन्देंनने फाग- बिलास? वा फाग-बिह्वार । इनका रास का रेखता वा सारठ ख्याल हे तो उनका रास-रस-लता इत्यादि । पिछले वर्षों में श्री नागरीदासजी का जीवन-पर्यत श्री दंदावन में सतत निवास रहा । इन दिनों वे पूर्ण त्यागी थे। इससे छोर गहरे सत्संग से उन्हें त्रजभाषा का बढ़ा हुआ अभ्यास था श्रोौर अच्छे अच्छे कवियों का नित्य संग था । घत उनको एताइ्शी कविता का बहुत अवसर मिला था।. परंतु न्रजनिधिजी का जन्म भर ( राजत्वकाल ) में राजकाज घोर युद्ध आदि से इतनी फुसत कहाँ थी । फिर भी उनकी भक्ति श्र सस्संगति को धन्य है जिसके कारण अवकाश की संकीणंता मे भी उन्होंने काव्य-रचना का इतना मदत्तर काय्ये किया श्रौर कराया | रसिक-विहारी महाराज नागरीदासजी की पालबान परम भागवत बनीठनीजी थीं ।. ये सदा महाराज के साथ दी रहती थीं श्र रसीली एवं सुमघुर कवित्ता करती थीं । इनकी रचना में मददाराज का भी दाथ रदता था 1 इससे यहाँ उदाहरण दिया गया है |




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