प्राचीन भारतीय मनोरंजन | Prachin Bharatiya Manoranjan

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Book Image : प्राचीन भारतीय मनोरंजन  - Prachin Bharatiya Manoranjan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्द प्राचीन भारतीय मनोरजन जागते हुए चिंता-ग्रस्त रहकर, और सोते समय उसी का सपना देख कर, कोई भी मनुष्य दौीर्घषकाल तक जीवन बनाये नहीं रख सकता । जीवित रहने के लियें आवश्यक हैं कि वह अपना स्वास्थ्य बनाये रखे तथा सवेगो एव मानसिक शक्तियों को विकसित करें । यदि वह ऐसा नहीं करता तो स्वल्प-काल में हो वह रोगो का आखेट हो जायगा और उसकी चुस्ती-फुर्ती, उसकी कर्मण्यता जाती रहेंगी। उसी प्रकार यदि उसकी मानसिक दयर्क्तियाँ विकसित न की गयी, तो उसके हृदय की आशा, उत्साह, प्रेरणा, कुतूहल प्रमुख बहुत-से सद्गुण कुम्हला जायेंगे। अग्रेजी की एक लोकोक्ति है कि स्वस्थ शरीर में ही भला-वगा मन होना सभव है। सामान्यत मानव-मात्र को सर्व कोई-न-कोई चिंता लगी रहती है। उससे उसे छुटकारा कहाँ * पर, मानव स्वेदा चिता-ग्रस्त नही रह सकता । इससे भी उसे थकावट आ जाती है। सोचने-विचारनें की नियत सीमा पर जब वह पहुँच जाता हूं, तव मन-ही-मन कुढता हुआ वह कह वेठता हैं-- “जाने दो ! चिंता का पार नहीं, कव तक माथा-पच्ची करता रहें! ” मानव के इस दशा तक पहुँचने की नौवत न आये, स्वल्पकाल के लिए ससार की ककटों और वखेडो से निप्कृति मिलें, इस अभिप्राय से, मानव- समाज में कालान्तर में नाना प्रकार के मनोरजन के साघन चल निकलें। दूसरे शब्दों में, मनोरजन के जितने भी साधन हैं, सामान्यत उन सबका ध्येय, ससार के वखेडो मोर ककटों में उलके मानव के मन को थोड़े समय के लिये चिता-भावना से'परे ले जाकर, कल्पना के सब्ज-चाग में छोड देना है। मनोविनोद के जितने भी साधन हैं, मोटे तौर पर वे तीन भागों में विभकत किये जा सकते हू--शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक । शरीर को स्वस्य और सवल बनाये रखने के लिये कालातर में दौड-घूप, कुदती, नाना प्रकार के खेखू-कूद, शिकार, इत्यादि की रचना हुई, किवा परपरा कं रूप में उत्तरकाल के मानव ने उन्हें अपने अर्थ-सम्य पर्वजो से प्राप्त किया । मानसिक शक्तियों को विकसित करने के लिये नत्य-गीत




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