गीता प्रवचन | Geeta Pravachan

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Geeta Pravachan by श्री हंसराज - Shri Hansraj

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पहुला अध्याय श्9 जे आगेकी सारी गीता समभनेके लिए अर्जुनकी यह भूमिका हमारे चहुत काम व्गई है; इसलिए तो हम इसका आभार मानेंगे ही, परन्तु इससे भर भी एक उपकार है। अर्जुनकी इस भूमिकामें उसके मनकी अत्यन्त ऋणजुताका पता चलता है। रद “अर्जुन' गव्दका अर्थ ही 'ऋजु अथवा सरक्त स्वभाववाला' हैं। उसके मनमें जो कुछ भी विकार या विचार माये, वे सब उसने दिल खोलकर भगवानुकें सामने रस दिये। मनमें कुछ भी छिपा नहीं रखा और वह अतको श्रीकृप्णकी घरण गया । सच पृछिये तो चह पहलेंसे ही कृष्णकी दरण था। कृष्णको सारयी बनाकर जबसे उसने अपने घोडोकी लगाम उनके हायोमें पकडाई, तभीसे उसने अपनी मनोवृत्तियोकी लगाम भी उनके हाथोमें सौप देनेकी तैयारी कर ली थी। आइए, हम भी ऐसा ही करे। “मर्जुनके पास तो कृष्ण थे। हमें कृष्ण कहा मिलेंगे, ऐसा हम न कहें। 'कृष्ण' नामक कोई व्यक्ति है, ऐसी ऐतिहासिक उफ॑ भ्रामक समभकी उलभनमें हम न पडे। अतर्यामीके रूपमें कृप्ण हम प्रत्येकके हृदयमें विराजमान हैं। हमारे सबसे अधिक निकट वही है। तो हम अपने हुदयके सव छल-मल उसके सामने रख दें बर उत्तसें कहें--“मगवनु, में तेरी शरण हु, तू मेरा अनन्य गुरु हूं। मुभे उचित मार्ग दिखा। जो मार्ग तू बतायेगा, में उसीपर चढ़गा।'” यदि हम ऐसा करेगे तो वह पार्थ-सारथी हमारा भी सारथ्य करेगा , अपने श्रीमुखसे वह हमें गीता सुनावेगा और हमें विजय-लाभ करा देगा। रविवार, २१०२-३२ था




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