तन्त्रवाधों में काफी एवं भैरव थाट के रागों में प्रयुक्त बंदिशों का विश्लेषणात्मक अध्ययन | Tantra Bado Me Kafi Awam Bharaw That Ke Rago Me pryukt Bandisho ka vishleshnatmk Adhyayan

Book Image : तन्त्रवाधों में काफी एवं भैरव थाट के रागों में प्रयुक्त बंदिशों का विश्लेषणात्मक अध्ययन  - Tantra Bado Me Kafi Awam Bharaw That Ke Rago Me pryukt Bandisho ka vishleshnatmk Adhyayan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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व प्रयोग ही सर्वप्रथम हुआ इसमें कोई सन्देह नहीं । पाश्चात्य विज्ञान कुर्ट सेक ने भी अपने ग्रन्थ हिस्ट्री ऑफ दि म्यूजिकल इन्स्टूमेन्ट्स में धन वर्ग के वाद्यों की ही प्रथम उत्पत्ति मानी है । ऐसी. मान्यता है कि धन वाद्यों के पश्चात्‌ अनवद्ध सुषिर तथा तत्‌ वाद्यों का प्रादुर्भाव हुआ । आज हम जिस प्रकार के वाद्यों को देखते हैं उनका यह रूप सहस्त्रों वर्षो के क्रमिक विकास का परिणाम है। ऐसे वाद्य जिसमें तांत अथवा तार द्वारा स्वर उत्पन्न होते हैं वे तत्‌ वाद्य कहलाते हैं । नाट्यशास्त्र में ततू को तंत्रीकृत कहा गया है | तत्‌ के पर्यायवाची शब्द तंत्री तंतु तार तांत आदि है | वैदिक काल से लेकर संस्कृत नाटकों तक विभिन्‍न ग्रंथों के अवलोकन से सिद्ध होता है कि तंत्री वाद्यों का अपना विशेष महत्व था। आज भी हम देवी सरस्वती के हाथ में वीणा देखते हैं जिसे ज्ञान का प्रतीक माना जाता है | तंत्री वाद्यों का शास्त्रीय संगीत के विकास में भी महत्वपूर्ण योगदान रहा है| तंत्र वाद्यों में वीणा सितार सरोद सुरबहार सुरसिंगार वायलिन दिलरूबा तानपुरा इत्यादि प्रमुख है। इन वाद्यों को पुनः दो उपवर्गों में विभाजित किया जा सकता है | पहले तत्‌ वाद्यों की श्रेणी में तार के वे वाद्य आते हैं जिसे मिज़॒राब जवा या अन्य किसी वस्तु की टंकोर (प्रहार) देकर बजाते हैं जैसे वीणा सितार सरोद रबाब सुरबहार सुरसिंगार तानपुरा इत्यादि | दूसरे उपवर्ग के वाद्यों में गज या कमानी की सहायता से बजने वाले वाद्य आते हैं जैसे इसराज सारंगी वायलिन दिलरूबा इत्यादि । अन्य श्रेणी के वाद्यों की तरह सुषिर वाद्य भी प्राकृतिक ध्वनियों के अनुकरण की चेष्टा से ही जन्म ले सके हैं। अत वे वाद्य जिनमें स्वरोत्पत्ति वायु द्वारा होती है वे सुषिर वाद्य कहे जाते हैं जैसे बांसुरी हारमोनियम शहनाई क्लैरियोनेट शंख तुरही इत्यादि | इन वाद्यों को भी हम दो उपवर्गों में विभक्त कर सकते हैं - पहला विभाग उन वादों का है जिसमें पतली पत्ती अथवा रीड द्वारा स्वर उत्पन्न होते हैं .जैसे हारमोनियम शहनाई | दूसरे प्रकार में वे वाद्य आते हैं जिनमें छिद्र द्वारा स्वर निकलते हैं जैसे बांसुरी बिगुल शंख इत्यादि। का भारतीय वाद्यों का तीसरा प्रकार अवनद्ध वाद्यों का है । अवनद्ध वाद्य प्रकृति तथा प्रयोग की दृष्टि से लय प्रधान होते हैं । विश्व की अधिकांश जनजातियों में आज भी संगीत वाद्यों के रूप में धन तथा अवनद्ध वर्ग के वाद्यों का ही प्रयोग देखा जाता है । किसी भी जानवर की खाल को साफ कर किसी .. प्रकार की खोंखली वस्तु के मुख पर उसे रख यदि कस दिया जाये तो वह अवनद्ध वर्ग का वाद्य बन जायेगा। इसका वर्तमान स्वरूप क्रमिक विकास का परिणाम है| है ह 2 पर रन मसमसनरर _ १. भारतीय संगीत वाद्य - डा० लालमणि मिश्र पृ० १६६...




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