मानस मुक्तावली | Manas Muktawali
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
13.3 MB
कुल पष्ठ :
272
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about रामकिंककर उपाध्याय - Ramkinkakar Upadhyaya
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)मानस-मुक्तावली १५ वर्णन का आदेश दिया (श्रीमदूभ।गवत पुराण की रचना के पीछे यही प्रेरणा थी ।) श्रीमद्भागवत में देव्षि ने वडे ही विस्तार से इतिहास के स्थान पर भगवद्गुण- गायन की आवश्यकता पर प्रकाश डाला । उन्होंने ऐतिहासिक दृष्टि के जो दोप चताए है वह वड़े महत्त्व के है। जो मनुष्य भगवान् की लीला छोड़कर अन्य कुछ कहने की इच्छा करता है वह उस-इस इच्छा से ही निर्मित अनेक नाम और रूपों के चक्कर में पड जाता है। उसकी बुद्धि भेद-भाव से भर जाती है। जैसे हवा के झको रो से डगमगाती हुई नौका को कही भी ठहरने का ठौर नही मिलता वैसे ही उसकी चंचल बुद्धि कही भी स्थिर नही हो पाती ततोध्न्यया किन यद्विवक्षत पृथरदृदास्तत्कृतरूपतासभि । न कुन्नचित्ववापि व दु स्थिता मतिलंभेत वाताहतनौरिवास्पदम् ॥। देवर्पि का दृष्टिकोण केवल भावनात्मक ही नही विचा रोत्तेजक भी है। सारी सृष्टि ही गुण-दोष से भरी हुई है। वर्तमान मे ही व्यक्ति लाखो व्यक्तियों के सम्पककं मे आता है और उनमें से अधिकाश हमारे मन पर कोई-न-कोई छाप छोड़ जाते है । गुण के द्वारा राग और दोप-दर्शन के द्वारा ढ्वेप हमारे मन पर छाए रहते है। वर्तमान में हमारा जिन लोगो से सम्पर्क होता है उनसे कुछ-न-कुछ लाभ-हानि की समस्या भी जुडी रहती है। अत एक सीमा तक उस प्रभाव से अछुता रहना असंभव नही तो कठिन अवश्य है । किन्तु इतिहास तो हमें उन लोगो से जोड देता है जिनसे हमे आज कुछ भी लेना-देना नही है । उन पात्नो के प्रति भी हमारे अस्तमंन से राग-रोप उत्पन्न कर देता है। इस तरह वह हमारा वोझ हल्का करने के स्थान पर ऐसा अनावश्यक बोझ लाद देता है जिसे केवल ढोना-ही-ढोना है। प्रत्येक जाति और देश उसी परम्परा को ढोने का प्रयास कर रहा है । किसी जाति ने किसी समय दूसरी जाति को उत्पीड़ित किया था अत. उसका बदला लेने के लिए आज भी उस घृणा-वृत्ति को जीवित रखता है । एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र का प्रतिद्वन्द्वी है और अपनी श्रेप्ठता की सुरा पीकर अन्य राप्ट्रो के विरुद्ध संघ करता है और इस तरह हिंसा-प्रतिहिसा के चक्र को आगे वढाता ही जाता है । घृणा और स्षे की ये प्रवृत्तियाँ मानव-मन मे आदिम-काल से विद्यमान है । उन्हें उकसाना बहुत्त सरल है । इससे नेतृत्व प्राप्त कर लेना अत्यन्त सरल हो जाता है । किन्तु इसके द्वारा व्यक्ति और समाज को क्या प्राप्त होता है? यदि हम शान्त चित्त से विचार करें तो देखेंगे कि अशान्ति ही इसकी उपलब्धि है । इसी को नारद हवा के थपेड़ों से भटकती हुई नौका के दृष्टान्त से स्पष्ट करते है। समुद्र था नदी का जल सहज भाव से अशान्त होता है और कही तूफान आ जाय तो कहना ही कया है ? मनुष्य का मन भी जल की ही भाँति चचल है । बुद्धि की नौका पर वैठ- कर व्यक्ति उस चचलता के माध्यम से नौका को देता हुआ लक्ष्य की ओर बढ़ता है। किन्तु उसी समय यदि सामूहिक टेप की आँधी चल पड़े तो नौका और उसपर सारूढ़ यात्री कं दशा की कल्पना की जा सकती है । व्यक्ति और समाज के जीवन
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