भाग्य और पुरुषार्थ | Bhagya Aur Purusharth

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Bhagya Aur Purusharth by सूरजभान वकील - Surajbhan Vakil

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(७3) पुरुबाथ से खेती करके तरद तरह के श्नाज्, तरह तरह के फल पैदा करता है; एक वृक्ष की दूसरे वृक्त के साथ कलम लगा कर उनके फलों को श्रधिक स्वादिष्ट श्र रसभरे बनाता है; अनाज को पीस-पोकर श्रौर आग से पका कर खत्तर प्रकार के खुस्वादु भोजन बनाता है । मिट्टी से इट बनाकर, फिर उनको श्राग में पकाकर श्राकाश से बात करने वाले बड़े बड़े ऊँचे मदल चिनता है, हज़ारों प्रकार के खुन्दर-खुन्दर बस्तर बनाता है, लकड़ी, लोहा, तांबा, पीतल, सोना, चांदी आदि ढंढ॒ कर उनसे श्नेक चमत्कारी वस्तुय घड़ लेता है; कागज़ बनाकर पुरुतकें लिखता है और चिद्धियां भेजता है; तार, रेल, मोटर, इड्जिन, जहाज़, घड़ी, घंटा, फोन, सिनेमा श्रादिक श्नेक प्रकार की अद्भुत कलें बनाता है त्रीर नित्य नई से नई बनाता जाता है; यह सब उसके पुरुषाथ की ही महिमा है। पशु इस प्रकार का कोई भी पुरुषाथ नहीं करते हैं, इस दी कारण उनको यह सब वस्तुयें प्राप्त नददीं होती हें । उनका भाग्य वा कमें उनको पेसी कोई वस्तु बनाकर नहीं देता है, घास-फूस जीव जन्तु शादि जो भी वस्तु स्वयं पैदा हुई मिलती हैं उनपर दी गुज़ारा करना पड़ता है, बरसात का सारा पानी, जेठ झसाढ़ की सारी धूप, शीत काल का सारा पाला शझपने नंगे शरीर पर ही भेलना पड़ता हें, और भी श्रन्य नेक प्रकार के सदा दुख युरुवाथ दीन होने के कारण सददने पड़ते हैं ! इसके उत्तर में शायद हमारे कुछ भाई यह कहने लग कि मनुष्यों को उनके कर्मों ने दी तो गसा ज्ञान ओर ऐसा पुरुषाथ॑ करने का बल दिया है जिससे वे ऐसी पेसी श्रद्धत वस्तुय बना लेते हैं, पशुओं को उनके कर्मों ने ऐसा शान श्रीर पुरुषाथं नहीं दिया है, इस कारण वे नद्दीं बना सकते हैं । मनुष्यों को उनके कम यदि पखा ज्ञान श्र




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