केनवास पर फैलते रंग | Canvas Per Phailte Rang

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Canvas Per Phailte Rang by बसन्त कुमार परिहार - Basant Kumar Parihar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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उसकी लारों की घिन और उसकी साँसों की दुर्गन्ध मेरे ज़हन में इतनी गहरे उतर गई है जहाँ न जाने कब से लोहार का हथौडा उनठना रहा है और दहकती भट्ठी की आग में जल रहा है सब कुछ - सचमुच एक अजीब ताकत है यह आग जिस में जलकर हर एक चीज आग बन जाती है और अपने गुणधर्म छोड़ देती है - इसीलिए शायद भूख को पेट की आग कहते हैं जिसमें भूखे इम्सान की इन्सानियत न ईमान सब जलकर नामशेष हो जाता है। चमचमाती तेज छुरी जब भुकती है हवा के पेट में तब उभरती है सनारों को चीरती हुई चीख़ और उसके डूबते ही आरम्भ होती है कविता । आरम्भ होनी हैं कचिता और रूठ जाते हैं 21 कैमबास पर फैलति रंग




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