प्रेम सागर | Prem Sagar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्द प्रेम सागर । तिसकाल सबहीके जीमें ऐसा ानन्द उपजा कि दुःखका नामभी न रहा हष से लगे बन उपबन हरे होर फूलने, नदी नाले सरोवर भरने, तिनपर भाँतिर के पक्षी कलोलें करने और नगर गाँवरघर९, मज़लाचार होने, बाहझण यन्न रचने दशोंदिशाके दिक्पाल हष ने,बादल ब्रजमरडलपर फिरने देवता अपने विमानों में बेठे आ्राकाशसे, फल बरपाने, विद्याघर, गन्थवे चारण ढोल दमामे मेरी बजायर णुणगाने और एकओर उठ्शी आदि सब अप्सरा नाच रहीथीं कि ऐसेसमय भाद्रपदबदी भष्टमी बुधवार रोहिणी नक्तत्र में झाधी रातकों श्रीकृष्णचन्द्रने ' आय जन्म लिया ओर «मेघवण चनदसुख, कमलनयन हो पीताम्बर काछे, सुझट धरे, बैजयन्ती माल; और रत्न जटित आभूषण पहरे, चतुभु ज रूप किये श्न. चक्र, गदा पद्म लिये असुदेव देवकी को दर्शन दिया, देखतेद्दी अचम्भेमें हो उनदोनोंने ज्ञानसे विचारा तो श्रादिडुरषकों जाना तब हाथ जोड़ विनतीकर कहा हमारे बड़े भाग्य जो झापने दर्शन दिया श्रोर जन्म मरणुका निषेढ़ा किया । इतना कह अपनी पहलीकथा सब सुनाई जैसे कंसने इःखदियाथा तब श्रीकृ्णचन्द्र बोले तुम अब किसी बातकी चिंता मनमें मतकरों क्योंकि मैंने तो तु्हारे दुःखके दूर करने को ही अवतार लिया , है, पर इस समय सुभे गोछल पहुँचादी शोर इसी बिरियाँ यशोदा के लड़की हुईं है सो कंसको ला दो भ्रपने जाने का कारण कहता हूँ सो छुनो । दो०-नन्द यशोदा तप करो,मोदीं सों मन लाय ! देखन चाहत गाल सुख,रदीं कहुक दिन जाय ॥ फिर कंस को मार झान मिठंगा ठुम अपने मनमें धरे घरो ऐसे बसुदेव देवकी को समुकाय श्रीकृष्ण बालक बन रोने लगे ओर झपनी माया फं लादी तबतो बसुदेव देवकीका ज्ञान गया श्रोर जानाकि हमारे पत्र भया यह समझ दशसदइस्र गाय मनमें सझ़ल्पकर लड़केको गोदमें उठा छातीसे लगालिया,उसका सु ह देख दोनों लम्बीश्वासे' भररापसमें कहने लगेजो . किसी रीति इस लड़केकों भगा दीजे तो पापीकंसके हाथसे बचे,बसुदेव बोले- बिधिना बिन राखे नहिं कोई । कर्म लिखा सोई फल दोहे ॥




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