भारत और मानव संस्कृति खंड - २ | Bharat Aur Manav Sanskriti Vol. 2

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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+१] फिर आचार्य हजारी प्रसाद जी से कहा ये हमारे पुरातन छात्र है। इन्हें इनके कार्य में सहायता देना। दिवेदी जी मेरे साथ मास्टर मोशाय (नन्दलाल बोस) के पास गए । उनसे पत्रिका का कवर डिजाइन बनाने की प्रार्थना की जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। फिर हम लोग आचार्य क्षितिमोहन सेन प्रो. तानयुनशान एवं अन्य विद्वान आचार्यों से मिले । इलाहाबाद लौटकर मैंने पत्रिका का उद्देश्य-पत्र तैयार करने में अनेक विद्वानों का सहयोग लिया। इनमें डाक्टर ताराचन्द डा. भगवान दास श्री सुन्दरलाल श्री मंजर अली सोख्ता एवं डा. कुंवर मोहम्मद अशरफ ने ययेष्ट रुचि ली । उसे छपवाकर देश-विदेश के मुूर्धन्य विदानों के पास भेजा गया। इनके लेखों से इस ग्रंथ में पर्याप्त सहायता ली गई है। अब प्रश्न था पत्रिका के प्रकाशन के लिए धन का। उसे भी मेरे परम मित्र प्रो. मनोहरलाल मिश्र लाला चुन्नीलाल कागजी कुमारी विद्या नेहरू श्री शिवकुमार मिश्र ने हल कर दिया। जनवरी 1941 से पत्रिका का प्रकाशन प्रारम्भ हो गया। पाठकों और विद्वानों ने उसकी भूरि-भूरि प्रंशसा की । गाधीजी ने लिखा विश्ववाणी का एक-एक अंक पुस्तक के समान है। मैंने चीन अंक रख लिया है। उसे फुरसत निकालकर पढ़ुंगा। विश्ववाणी ने अहिंसा और सत्याग्रह के अतिरिक्त विश्व के सांस्कृतिक इतिहास पर डेढ़ दर्जन विशेषांक निकाले। उसके संस्कृति विशेषांकों के लिए देश और विदेश के मूर्धन्य विद्वानों ने अपने लेख भेजे। दस वर्षों के पश्चात्‌ जब मैं वाराणसी में भारतरल डाक्टर भगवान दास से मिला तो उन्होंने मुझे प्रेरणा दी कि विश्ववाणी की सामग्री से कम से कम दो दर्जन मूल्यवान पुस्तकें प्रकाशित हो सकती हैं। उनके परामर्श के अनुसार हमने आठ-दस पुस्तकें प्रकाशित कीं जिनकी उपादेयता आज भी है। 1950-60 के दशक में अनेक विश्वविद्यालयों ने विश्व सभ्यता और संस्कृति को अपने पाठूयक्रम में शामिल कर लिया। उसके बाद उन पुस्तकों की मांग और बढ़ी । फिर यह सुझाव आया कि एक ही जिल्द के अन्तर्गत विश्व की समस्त संस्कृतियों को भारतीय संस्कृति के संदर्भ में प्रकाशित किया जाय । सहदय मित्रों के सुझावों स्वयं अपने अनुभवों से मुझे प्रेरणा मिली और मैं उस वृहत ग्रंथ के शोध और लेखन में पूरी तरह लग गया। कागज का यथेष्ट कोटा




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