संत काव्य | Sant Kavya

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Sant Kavya by नर्मदेश्वर चतुर्वेदी - Narmdeshwar Chaturvedi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भूमिका र् रा) का शिवनारायणी सप्रदाय, सत चरणदास (स० १७६०-१८३४) का चरणदासी सप्रदाय, सत गरीवदास (स० १७७४-१८३५) का गरीव पथ, सतत पानपदास (स० १७७८-१८३०) का पानपपथ भर सत रामचरणदास (स० १७७५८-१८३० ) का राम- सनेही सप्रदाय नामक भिन्न-भिन्न वर्ग प्रतिष्ठित हो गए। इन सभी का अपने-अपने क्षेत्रो में सगठित रूप से प्रचार भी होने लगा। इस काल मे दीन दरवेश (उन्नीसवी शताब्दी का प्रथम चरण) तथा बुल्लेशाह (स० १७३७-१८१०) गौर बाबा किनाराम (यृ० स० १८२६) जैंसे कुछ अन्य सत भी हुए जिन्होंने सत-मत, का किसी-न-किसी रूप मे प्रचार किया । यह समय उस प्रकार के सतो का था जो सत-मत को अधिकतर किसी-न-किसी समन्वयात्मक दृष्टि से देखते थे । इनमे से कई एक सम्राट अकबर (स० १५४४-१६६२) की भाँति, एक ऐसे मत का प्रचार करना चाहते थे जिसके अतगंत सभी प्रचलित धर्मों के मूल सिद्धातों का समावेश हो सकें। अत धर्मों के प्रमुख मान्य ग्रथो का अध्ययन ओर सुफियो एव बेदातियों द्वारा प्रभावित विचारों का प्रचार तो हुआ ही, उसके साथ-साथ पौराणिक गाथाओ की सृष्टि, अलौकिक प्रदेशों की कल्पना, भक्तमालो की रचना तथा अपने-अपने श्रेष्ठ ग़थो की पूजा भी इस काल से आरभ हो गई। कुछ सत एक प्रकार के अवतारवाद को अपनाकर अपने को पूर्वकालीन सतो का प्रतिरूप वा भविप्यकालीन सुधारक, अर्थात्‌ मसीहा तक भी घोपित करने लगे । इस युग मे एक विशेष बात यह भी दौख पडी कि उक्त सप्रदायो मे से एकाध ने दिल्‍ली के तत्कालीन शासको के विरुद्ध विद्रोह का झडा उठाया । सत्तनामी सप्रदाय के अनुयायियो ने इसी युग मे सम्राट औरगजेब (भू ० स० १७६४) के शासन के विरुद्ध स० १७२४ मे विद्रोह किया । गुरु नानकदेव के अनु- यायी सियो ने अपने नवे गुरुगोविंद सिह (स० १७२३-१७६५) के नेतृत्व मे उसके साम्राज्य के विरुद्ध 'खालसा वीरो के रूप मे डटकर लोहा लिया । परन्तु सत-परपरा के अतगंत उक्त प्रकार की साप्रदायिक मनौवृत्तियो का जाग उठना आगे चलकर उसके लिए अहितकर सिद्ध हुम। भिन्न-भिन्न वर्गों के अनुयायियों « का अपने पथ विशेष के प्रति पक्षपात का होता जाना स्वाभाविक था जिस कारण उनमे रुढ़िवादिता एव सकीणंता आ गई। वे एक-दूसरे को नितात पृथक तथा भिन्न समझने लगे । इन सप्रदायों के अनुयायी अपने मूल-प्रवत्तको एव प्रमुख सती को राम, कृष्ण, बुद्ध आदि की भाँति देवत्व का स्थान देने लगे । उनकी अचना होने लगी । उनका स्तुति-गान आरभ हो गया । उनके सगृद्दीत उपदेश ग्रथो तक को गुरुवत्‌ गौरव प्रदान किया जाने लगा। उनके चित्नों वा समाधियो की पुजा उनका महत्वपूर्ण कतंव्य बन गई। उनके सम्मान में किये गए मेलो में प्रचलित पवों एव तीर्थों का-सा चमत्कार आ गय। । उनके जीवन की साघारण-सी घटनाओ पर भी पौराणिकता का रग चढाकर बहुत-सी पुस्तक लिखी जाने लगी और सस्या उत्तरोत्तर बढती गई । अपने-अपने सप्रदायो की गणना अब वे लोग भी क्रमश अन्य प्रचलित धर्मों के सप्रदायो की भाँति ही करते थे । उनमे विविध वाह्माचारो तथा कल्पित गाथाओ की सृष्टि होती जाती थी जिसका एक परिणाम यह हुआ कि जिन वातो को दर कर एक शुद्ध एव सात्त्विक धर्म की प्रतिष्ठा का उद्देश्य पहले उनके सामने रखा गया था, वे उनमे फिर भी प्रवेश करने लगी और उनका वास्तविक आदर्श उनकी दृष्टियो से ओोझल हो गया । अब सतमत एव अन्य सप्रदायो की मान्यताओ मे विशेष अन्तर नही रह गया । फलत उच्च स्तर के सत ऐसी प्रतिकूल भावना की कभी- कभी आलोचना तक करने लगे और कोई-कोई इन पतनोन्मुख प्रवाह की रोकथाम के लिए कटिवद्ध भी हो गए।




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