श्री सम्पूर्णानन्द अभिनन्दन ग्रन्थ | Sampurnanand Abhinandan Granth

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Sampurnanand Abhinandan Granth by वनारसीदास चतुर्वेदी - Vanaaraseedas Chaturvedee

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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गीरूपी शतघार करना या दहरे नहीं उसे ठांठ कइते हैं । संस्कृत में उसके लिये श्रवतोका श्रौर वेहत्‌ शब्द हैं | बच्चा गिराने के लिये पछाद्ीं दिन्दी में तूना, श्रवधी में श्रडाना, विद्यारी में निठाना श्ौर ्न्य बोलियों में ऊनना, चूना, यदना श्वादि घातुएं हैं। जिसके व्याने का समय निकट हो उसके लिये वैदिक शब्द था प्रवयूया, श्रौर जो सांक सवेरे में ही व्याने वाली हो उसके लिये पाणिनि काल में एक नया शब्द चल गया या श्रद्यशवीना (श्राजकल में ब्याततर ५1२१३) । लोक में इसी को यों कहते हैं कि वियावर गाय या मैस एक दो दिन पहले से पुठ्रें तोड़ने लगती है श्रथीत्‌ उसके * पुद्ठे की दृट्डियां कुछ उठ जाती हैं । पहली चार ब्याने वाली पदलवन या पद़िलौठी कहलाती है । व्याने के छ: मद्दोने तक जब दूध देती रहे तब घेनु कद्दी जाती है । कांत्यायन ने उसके लिये श्रस्तिक्नीरा शब्द का उल्लेख किया है | (माप्य २1२।२४1२१) । जिसका बच्चा बड़ा हो जाय वदद बाखड़ी या पूर्र में वसैंनी कहलाती है जो संस्कृत ब्रप्कयणी से बना है । दूध देने वाली गाय को श्रवधी में लगनी श्यौर दूध से मागी हुईं को छुटानी कहते हैं | जिसका यध्या जाता रहे. (मत वत्स!) घदद वैदिक काल में निंवान्या कद्दी जाती थी | श्रीत सूबर श्रीर बाहझण प्रत्थों में इस शब्द का प्रयोग हुआ हे । मेरठ की बोलो में वह तोड़ या विनकट कही जाती है । पक मित्र से शात डुश्रा कि पूरी में श्रमी तक निवानी शब्द चलता हैं । देईं (स० देवी) वदद बछिया होती है जो देयी- देवता के नाम से छोड़ दी जाती है । वियाने पर उसके दूध में रई नहीं पइती, यानी दूध पिलोया नहीं जाता | उसका दूध पीते श्रौर दद्दी या खीर खाते हैं । खियां मित्त नेम की जो रोटी निकाराती हैं उसे देई गौ सा सकती है । ब्राह्मण की तरद देई की मान्यता की जाती है, उसे बेचते नददीं । जब्र दूध पी 'ुकते ई तो या तो श्रगले ब्यांत के लिए, छुट्टा रख लेते हैं या पुन कर देते हैं | सीधे स्वमाव की गाय बहुत पसन्द की जाती है । गी श्राज तक इमारी योलियों में सीघेपन का उपमान है । गौ है? यद्द बढ़ा सार्थक चाक्य है । दुद्ने में जो भली मानस हो वद्द सद्देन कइलाती दे । वेद में उसे सुदुधा कद है। श्रथ्यी की प्रशंसा में एक जगद कद्दा गया है कि वह्द दमारे लिये धन सम्रद्धि की दइजार धाराएँ: ऐसे देती रहे जैसे श्रचल भाव से बिना फड्फड़ाने वाली गाय ( श्र वेव घेनुरनपस्फुरन्ती, श्ययर्थ १२।१ 9 | गायों में कपल गाय सबसे सीधी श्रौर निरीद मानी गई दे । कपला वध गाय है जिसके सींग कानों के वरावर नीचे को मुढ़े रहते हैं श्ौर डुगडुग दिलते दें । हँसली की तरद सींग होने के कारण यद गाय हँसली मी कदलाती हे । सीधी का उलट कड्पी, मरखनी, मरसा दे | ऐसे तेज़ स्वमाव की गाय के लिये मेरठ की बोली में एव बहुत खुस्त विशेषण सुनने को मिला ईतरी | दड़ी ईतरी गाय है | यदद पुराने वैदिक शब्द इत्यरी* से धना दे | इत्यर का शब्दायें है गमनशीला । अयबें वेद में दय्वी को “श्रंप्रत्वरी', सबसे श्रागे रहने वालो, नेश्री कद गया है (रराशाइ७) | है घातु का झार्थ है जाना, उसी से त्वर जोड़ने से इत्वर, इत्वरी बनते हैं । गमनशील तो श्रच्छा श्रर्थ था, उसी में कालांतर में कुछ देठा भाव मिलने से चंचल श्रर्थ हो गया । सूरदास ने उराइना देने वाली गोपियां के मु से कइलवाया दे--'देखि मद्दारि को कद उठीं सुत्त कीन्डों इतर” | मेरठ की बोली में ईतरे वालक मददापरा प्यूब चलता दे । इतराना इसी से बनी हुई घातु दे । मॉकने याली चंचल गाय के लिये ईतरी सार्थक शब्द दे । भोजपुरी में इसके लिए करकट शब्द है, जो संस्कृत करटा (दुसदोक्ा तु करटा, देमचन्द्र ४1३३४) से बना है | सब तरइ बेरेच सीधी गाय सुयरी कइलाती हे । गाय गर्मी नहीं मानती, पर मैंस घाम नहीं रद पाती । जो गाय मैंस की तर धूप से धनरड्टा फर पानी - में खड़ी रदना चादे वह पामर कहलाती हैं । जो दूध श्रथिक दे बह दुधार (दोग्ी) श्रीर जो धी श्रधिक दे यए पियाल है । जो दुधार श्रौर पियाल दोनों दो उसे कसरीली, श्रौर इसके विपरीत थी दूध की देठी को कट्टा कदते हें ।




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