जीवन साहित्य अहिंसक नवरचना का मासिक | Jeevan Sahitya Ahinsak Navrachana Ka Masik
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
30.56 MB
कुल पष्ठ :
679
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)'दयामय, मंगल-मंदिर खोलों....'
श्री वियोगीहरि
दारीर छोड़ने से दस-वारह दिन पहले शाम को
रोग-कया पर लेटे-लेठे सरदारश्री अपनेताप धीरे-धीरे
गुनगुना रहे थे--
'दयामय, मंगल-मंदिर खोलो, ..'
डाक्टर नाधाभाई पटेल ने मजाक के सुर में कहा--
ऐसा भासान नहीं मंदिर का खुलना । एक नहीं,
दो-दो ताले दरवाजे पर लगे हुए हें ! ”
*'भरे, दो तो कया, दस ताले भी टूट जायेंगे गौर
मन्दिर का द्वार खुल जायेगा ।” सरदारश्री ने हंसते हुए
डावटर की वात को उसी वक्त काट दिया गीर वैसे
ही फिर भजन की उसी कड़ी को गुनगुनाने छगे--
दयामय, मंगल-मंदिर खोलो...”
दयामय प्रभु के मंगछ-मंदिर में प्रवेश पाने के लिए
वे कितने ही दिनों से गातुर थे । असल में तो, वापू के
सिघार जाने के वाद सरदार के जीवन में वसा रस
नहीं रह गया था 1
ऐसे ही, एक दिन और उन्होंने हँसते हुए कहा था;
“स्टेदानों पर कई मुसाफिर एक-दों आने टिकटवायू
को दे देते हें तो टिकट उन्हें बिना तकलीफ के तुरन्त
मिल जाता है । इसी तरह, मादम होता हैं; वहाँ
लाँच छंकर टिकट देते हैं । देखते-देखते मेरे कितने
ल
शक
बे
नल ७)
साथी टिकट कटा-कटाकर चढ़े गये, पर में तो लाँच
देनचाला नहीं ।
इसी तरह सरदार, वीमारी के दिनों में भी, हुंसते-
हंसाते रहते थे; पर, यहां रोग-जर्जरित देह में बंधे
रहना उन्हें इचर अच्छा नहीं लगता था !
सरदार वढड़े-वड़े मोचों पर योर उन्होंने वढ़े-
ही-वड़े काम किये । मन चाहता था--पर दारीर काम
नहीं दे रहा था--कि उनके हाथ से देव का भर थी
कुछ भला हो । उनके मानस-चित्रपट पर भारत के
अलावा चीन, तिव्वत्त गौर नेपाल की तस्वीरें घूमती
रहती थीं । पर जो-जों करना चाहते थे, कर नहीं पाते
थे जोर जो नहीं चाहने थे ऐसी कितनी ही बातें
हो जाया करती थीं। बेब थे। विना कुछ मेला काम
ड़
किए कल नहीं पड़ता था । इसलिए लाचारी का जीना
भच्छा नहीं लगता था ! फिर भी कई महीनों वे, कई दिनों
से; जिद्दी रोग के साथ वीरता-पुर्वक लड़ते भा रहे थे ।
पेट में बसह्य पीड़ा होती थी, फिर भी कभी
वेचेनी नहीं दिखाई । कभी कुछ कहा तो इतना ही कि
पेट पर जैसे करौत चल रहा है, पर उफ त्तक नहीं
करते थे । मौत भी बेचारी चकराती रही होगी कि
इस भजीव से दिकार को किस तरह झपट कर पकड़े, !
उस दिन भी वह बहादुर सरदार दिकारी मृत्यु
की छाया तले कई घंटो बड़े धांतभाव से सोता रहा ।
मत में धक्का देता हुआ वह मगल-मंदिर के अंदर घुस
ही गया। दयामय का द्वार खुल गया था 1
सरदार वल्लभभाई को किसी ने “लौह पुरुप
कहा गौर किसी नें भारत का 'विस्माक' । उपमा देन
या तुढ्ना करने में एक प्रकार का रस गाता है, फिर
वह उपमा या तुलना ठीक-ठीक बंठती भी हो या नहीं ।
प्रगंसक भर नित्दक दोनों ही अपनी-अपनी रुचि के
अनुरूप उपयुक्त-अनुपयुक्त थाच्दों का मुक्त प्रयोग करते
हें। सरदार को भी क्या-या नहीं कहां गया । पर
उन्होंने तो स्तुति और निन्दा दोनों की सदा उपेक्षा ही की ।
असल में तो वे एक धर्मात्मा पुरुप थे । बहुत ऊहा-
पोह में न पड़कर जिसे वे ध्मे-विहित कार्य समझते उस
पर दृढ़ रहना उनके सादू जीवन का मूलमंत्र था। यृद्धि
निदचयात्मक थी, इसलिए किसी भी निर्णय पर पहुंचने
में देर नहीं लगती थी । मित्रता की तो मंततक निवादी ।
जो संकल्प वांवा उसे पूरा किया । अपनी वात पर से कभी
हट. नहीं । दुनिया की बालोचना की परवा नहीं की 1
हृदय कोमल गौर फूल-सा विकसित । इतनी बढ़ीं
सत्ता पर याछ्ढ़, पर उसके प्रति मोह नहीं । पैसे को
भी सदा तुन्छ ही समझा |
ऐसे थे वे सरदार--याने, घर्मात्मा पुरुष । प्रभु के
मंगल-मंदिर का द्वार तो ऐसे भक्त पुरुप के लिए घान्ति
' पूर्वक खुलना दीं चाहिए था, भौर दयामय पिता मे
उसे अपनी गोद में उठा लिया ।
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