साड़ख्य दर्शन की एतिहासिक परम्परा | Sankhya Darshan Ki Aitihasik Parampara

Sankhya Darshan Ki Aitihasik Parampara by प्रो. आद्याप्रसाद मिश्र - Addya Prasad Mishra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श सांख्य दर्शन का इतिहास प्रयोग एवं श्रतुभव । इसीलिए उनकी दददन संज्ञा तथा उनके द्रष्टाओ्ओों की ऋषि संज्ञा सवधा साथेक है । ददन को इस व्यापक दृष्टि से देखने पर हमारा सारा का सारा श्रार्ष-साहित्य-- वैदिक संहितायें ब्राह्मण श्रारण्यक तथा उपनिषद्‌--ह्ी दन हो जाता है पर यह ठीक ही होता है । क्योंकि जब वह दर्शन है तभी तो उसके द्रष्टा क्रिषि-- कऋषयों सन्त्रद्रष्टार -- हैं श्रन्यथा उनका श्राघत्व कथमपि सिद्ध नहीं होता । इस कथन का यह तात्पये नहीं है कि समस्त वैदिक वाड मय का श्राषंत्व सिद्ध करने के लिये उसे दर्शन मानना है । इसके विपरीत इसका तात्पर्य यह है कि चूँकि सारा वैदिक वाड मय प्राचीन तपस्वी मनीधियों एवं चिन्तकों के द्वारा हृष्ट भ्र्थात्‌ साक्षात्कृत तत्वों या धर्मों की श्रभिव्यक्ति-मात्र है उनका दर्शन है इसलिए वे दर्शक -- साक्षात्कृतघर्मा मनीषी--ऋषि हैं जिसके कारण समस्त वैदिक वाड मय श्रार्ष-साहित्य कहा जाता है । यह श्रन्य बात है कि वेदों का संहिता-साहित्य विभिन्न देवता-तत्त्वों का दर्शन है उनकी श्रभिव्यक्ति और स्तुति-रूप श्राराधना है उसका ब्राह्मण-साहित्य उन्हीं देवता-तत्त्वों की झाराधना के एक विदिष्ट प्रकार श्र्थात्‌ यज्ञ-तत्व--वैदिक कर्म--का दर्दन है भ्रारण्यक- साहित्य उसके दूसरे विशिष्ट प्रकार श्रर्थात्‌ उपासना-तत्त्व-वैदिक भक्ति--का देन है तथा उपनिषत्-साहित्य मुख्यतः विभिन्न देवता-तत्त्वों में भ्रनुस्यूत एक ही मूल तत्त्व--परमाधिदेवता परम पुरुष या ब्रह्म--तथा उसकी श्राराधना के तीसरे विशिष्ट प्रकार भ्र्थात्‌ ज्ञान-तत््व का दर्शन है। परवर्ती काल में जब दर्शन शब्द से सर्व-प्रमुख श्रात्म-दर्शन ही ग्रहण किया जाने लगा होगा तब धीरे-धीरे अध्यात्म-ज्ञान-प्रधान उपनिषदों तथा उनके श्राधार पर रचित त्याय सांख्य योग मीमांसा इत्यादि के सुत्रों के लिए ही विशेष रूप से उसका प्रयोग होने लगा होगा ऐसा प्रतीत होता है । बृहदारण्यक उपनिषदू के मैत्रेयी ज्राह्मण ( बृहदा० ४1४५ ) से भी इसी बात की पुष्टि होती है। इस ब्राह्मण में महामुनि याश्वल्क्य तथा उनकी ब्रह्मवादिनी पत्नी मैत्रेयी के बीच अमृतत्व-प्राप्ति के विषय. में संवाद हुमा है। मैत्रंयी के श्रतिरिक्त याज्वल्क्य की एक श्रौर पत्नी कात्यायनी थी जो स्त्री-्रज्ञा --सामान्य ख्ियों की सी बुद्धि वाली--थी । गहस्थाश्रम को छोड़कर संन्यास ग्रहण करने की इच्छा प्रकट करते हुए याज्ञवल्क्य ने एक समय में भ्रपनी ब्रह्मवादिनी प्रिय पत्नी मैत्नेंयी से कहा कि हे मैत्रेयि मैं कात्यायनी के साथ तुम्हारा निपटारा कर देना चाहता हूँ ताकि मेरे न रहने पर तुम दोनों में कलह न हो । मैत्रेयी ने-उत्तर में कहा कि है. भगवन्‌ यदि यह सारी पृथ्वी वित्त से परिपूर्ण होकर मुझे प्राप्त हो जाय तो मैं श्रमर हो _ सकूंगी या नहीं ? याज्ञवल्व्य ने उत्तर दिया--नहीं समस्त उपकरणों से युक्त जनों का . जैसा जीवन होता है बैसा ही तुम्हारा भी होगा बित्त से श्रमृतत्व की श्राद्या करना ट्यर्थ ही है। तब मैत्रेयी ने कहां कि हे भगवन्‌ जिस वित्त से मैं अमर न हो सकंगी उसे लेकर मैं क्या करूंगी ? जिसे भ्रमृतत्व की प्राप्ति का साधन जानते या समभ्रते हों उसी का उपदेश कृपया मुझे दें । याज्ञवल्क्य ने कहा-- हे मैत्रेयि ध्यान दो मैं उपदेश दे रहा हैं । पति .. पत्नी पुत्र वित्त पु लोक देव वेद प्राणी--सभी कुछ श्रात्मा के ही लिए अ्रपने दी लिए + ह.. साचात्कतघमाण ऋषयो बभूबु ।.--निरुक्त में यास्काचाय ।




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