सन्त - मत दर्शन भाग १ | Sant-mat Darshan Bhag-1
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
18.76 MB
कुल पष्ठ :
458
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)“बुरा जो ढूँढन से गया, बुरा न मिलिया कोय ।
जब दिल खोजा आपना, मुझ से बुरा न कोय ॥'
जब अपनें अन्दर खोज की तो पता लगा कि दुनिया
से हम से बुरा कोई नही । फिर फरमाते हैं -
“कबीर सब ते हम बुरे, हम तज भले सब कोइ ।
जिन ऐसा कर बूझिया, मीत हमारा सोइ ॥'
यह स्वाभाविक है कि जो मनुष्य शअ्रपने आ्रापको नीचा
समझेगा तथा श्रपनो त्रुटियो को देखेगा, वही उन्हें दर करने
की कोशिश भी करेगा । जो सारी उम्र दुनिया को ही बुरा
तथा छोटा समझता है श्रौर अपने श्रापको अच्छा श्र बड़ा
समझता रहता है, वह अपने दोष या नुक्स किस प्रकार टूर
करेगा । उसके नुक्स तो श्रौर भी बड़े हो जाते हे । हमारे
मन से जितनी अधिक नख्रता श्रौर दीनता होती है, हमारा
रायाल उतना ही अधिक मालिक की भक्ति की श्रोर जाता
है । इसीलिये महात्माओ ने तन, धन श्र मन की सेवा रखी
है ताकि हमारे मन में नम्रता तथा दीनता बनी रहे । जब
हम इस तन के द्वारा साध-सगत की सेवा करते हू तो हमारे
अन्दर से खुदी या झ्रहकार निकल जाता है । जो घन-दौलत
का श्रहकार हमें एक-दूसरे के साथ बेठने नही देता, एक-
दूसरे के साथ चलने नही देता, जब हम एक समान होकर
साध-संगत की सेवा करते हे तो वह श्रहंकार हमारे भ्रन्दर
से अ्रपने आ्राप निकल जाता है । सन्तो-महात्माझ्रो ने तन की
सेवा इसीलिये रखी है कि जिस तन की वजह से हम मान-
बड़ाई में इतने फँसे हुए है उसके प्रति हमारा मोह श्र
प्यार न रहे और वह साध-संगत की सेवा में लग जाये । मन
की सेवा है मन को इन्द्रियो के भोगो की श्रोर जानें से रोकना,
उसे विषय-विकार, दाराब-कबाब श्रादि की श्रोर से हटाना ।
यह तन, मन श्रौर धन की सेवा सन्तो ने इसलिये रखी है
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