प्रायश्चित - विधान | Prayashchit - Vidhan

Prayashchit - Vidhan by त्रिलोकचन्द्र जी महाराज - Trilokchandra Ji Maharaj

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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द्वितीय -प्रावश्चितत ७ इस प्रकार करना उन्हें कल्पता है श्रौर इस प्रकार किया जाता हैं, उन्हें किसी प्रकार का पारिहारिक तप प्रायद्चित नहीं आता--यह स्थविर-कल्पियों की मर्यादा है । परन्तु जिन-कल्पी साधु को ऐसा करना नहीं कल्पता है श्रौर न वे ऐसा करते हैं, न करने पर उन्हें कोई पारिहारिक प्रायश्चित्त नहीं श्राता । (कल्प्य-प्रायद्चित्त, केवल श्रालोचना करनी होती है) (३) भिक्खू य॒ इच्छेज्जा गण धारित्तए, नो से कप्पद थेरे श्रणा- पुल्छित्ता गण धारित्तए, कप्पट्ट से थेरे श्वापुच्छिता गण॑ धारित्तत । थेरा य से वियरेजजा, एवं से कप्पद गणं धारित्तए; थेरा य से नो वियरेज्जा एवं से नो कप्पद गण धारित्तए्‌ । जर्णं थेरेहिं श्रविदरण॑ गण धारेइ, से संतरा छेए वा परिहार चा । जे ते साहम्मिया .उद्टाए विहरंति, णत्थि णं तेसिं केई छेए वा परिद्दारे वा । --व्यवहार सूत्र दर किसी साधक के मन में कुछ साधुद्नों को साथ लेकर विचरने की इच्छा हुई, तो उसे स्थविर भगवान्‌ से विना पुछे ऐसा करना नहीं कत्पता, उनसे पूछ कर करना कल्पता है। स्थविर भगवान्‌ श्राज्ञा दे देवें तो साधुभ्रों को साथ लेकर विचरण कर सकता है, यदि वे श्राज्ञा न देवें तो ऐसा करना मदीं कल्पता । जो साधक स्थविर भगवान्‌ की श्राज्ञा विना साधझ्रों को साथ लेकर जितने दिन विचरे, उतने ही दिन का उसे दीक्षा-छेद व पारिहारिक तप का प्रायदिचत्त श्राता हैं। परन्तु जो साधु उसके साथ विचरे हैं उन्हें कोई छेद व तप प्रायदिचित नहीं भ्राता । (केवल श्रालोचना करनी होती है) २. प्रतिक्रगण-- थव्विदे पढिकमणे परणते त॑ जहा--उच्चार-पढिक्मणे, दि




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