अकबरी दरबार [भाग ३] | Akbari Darbar [Bhag ३]

Akbari Darbar [Bhag ३] by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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हू व. ता था छौर भापणो तथा युक्तियों के चकमक को टकराता था; छकिन वास्तविकता का पतिंगा न चमकता था। डुःखी होता था और रह जाता था । उसी श्वसर पर मुझा साहव पहुँचे । उन्होंने यौवन के आावेश छर कीर्ति तथा उन्नति की कामना से बहतों को तोड़ा । उन्होंने ऐसे ढंग दिखलाए. जिन से जान पढ़ा कि नए सस्तिप्कों मे नए विचार उत्पन्न होने की 'छाशा हो सकती है। लोगो में इस नवयुबक के विचारों की भी चचो हो रही थी । जिस स्रोत मे मुझ्ा साहव पतले थे, यह भी उसी की मछली था । बड़ा भाई दरवार से पहले ही से उपस्थित था । प्रताप ने उसे चुम्बक पत्थर के झाकपण से दरवार की ओर खीचा | यद्यपि उस मैदान मे ऐसे लोग भरे हुए थे जो उसके पिता के समय से उसके बंश के रक्त के प्यासे थे, फिर भी यह सृत्यु से कुश्ती लडता 'और शभाग्य को रेलता ढकेलता टरवार में जा ही पहुँचा । इश्चर जाने फेजी ने किस अवसर पर वादशाह से निवेदन किया था और किस से कहलाया था। तात्पय यह फि दीपक से दीपक प्रकाशमान हुआ । स्वयं 'झकवरनामे में लिखा है 'ओर अपने श्यारम्भिक विचारों का नए ढंग से नक्शा गींचा है । सन्‌ ९८१ हि» में छकचर के शासन-काल का उन्नीसवाँ वर् था; ज्र कि 'शरकवरनामे के लेखक अव्युलफजल ने अकबर के पवित्र दरवार में सिर झुका कर थ्पने पद छौर मर्यादा को उज्यासन पर पहुँचाया । एकान्त के गर्म से से निफलने पर पॉच चप से व्यवहार का ज्ञान प्राप्त हुआ । शब्द और थ्थ के पिता ने शिक्षा की चष्टि से देखा (्र्थात्त ज्ञान ने ही शिक्षा दी ) ।




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