कालिदास - ग्रन्थावली | Kalidas Granthvali

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Kalidas Granthvali  by पं. सीताराम चतुर्वेदी - Pt. Sitaram Chaturvedi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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४ ] # रघुवंदासू # प्रजानामेव भूत्यथ स ताम्यों बलिमग्रहीत्‌ । सदस्रगुणमुत्खष्टुमादचे हि रस रवि: ॥१८॥। सेना... परिच्छदस्तस्यद्यमेबाथसाधनम्‌ । शास्त्रेष्यकुणि्ठिता बुद्धिमोवी धनुषि चातता ।1१£।॥। तस्य संबृतमन्त्रस्य गूढ़ाकारेब्ितस्य च । फलानुमेया: प्रारम्भाः संस्कारा: प्राकना इव ।1२०॥ जुगोपात्मानमत्रस्तो भेजे. धममनातुरः । अगृध्नुराददे सो््यमसक्तः सुखमन्वभूत ॥२१॥ ज्ञाने मौन मा शक्तौ त्यागे श्लाघाविपर्यय:ः गुणा गुणशानुवन्धित्वात्तस्य सप्रसवा इव ॥२२॥। भ्रच्छे ढगसे प्रजाकी देखभाल की कि प्रजाका कोई भी व्यक्ति मनुके बताए हुए नियमोंसे बहककर चल नहीं सकता था । [सब लोग वण शोर श्राश्रमोंके नियमोंके श्रनुसार ही श्रपने धमंका पालन करते थे] 1१७ जसे सूर्य शभ्रपनी किरणोंसे प्ृथ्वीका जो जल सोखता है उसका सहस्रगुना बरसा देता है, वंते ही राजा दिलीप भी भ्रपनी प्रजाकी भलाईमे लगानेके लिये ही प्रजासे कर लेते थे ।१८॥। [जसे श्रौर राजाश्ोंके पास बड़ी भारी सेना होती थी वेसे ही) राजा दिलीपके पास भी बड़ी भारी सेना थी पर वह सेना केवल छोभाके लिये ही थी [उससे कोई काम राजा दिलीप नही लेते थे ।] क्योकि शास्त्रोका उन्हे बहुत भच्छा ज्ञान था भीर घनुष चलानेमें भी वे एक ही थे । इसलिये वे श्रपना सब काम प्रपनी तीखी बुद्धि भोर धनुषपर चढ़ी हुई डोरी-इन दो से हो निकाल लेते थे । [उन्हे किसी काममे किसी श्रौरकी सहायता नहीं लेनी पड़ती थी ] ॥१९॥। राजा दिलीप न तो भ्रपने मनका भेद किसीको बताते थे भोर न श्रपनी भावभंगीसे हो श्रपने मनकी बात किसीको जानने देते थे । जेसे इस जन्ममें किसीके [सुखी या दुखी ] जीवनकों देखकर लोग समझते हैं कि उसने पिछले जन्ममें क्या [श्रच्छे या बुरे] काम किए थे वैसे ही राजा दिलीपके मनकी बात भी लोग तभी जान पाते थे जब वह काम हो छुकता था, [उससे पहले नहीं] ॥॥२०॥ वे निडर होकर श्रपनी रक्षा करते थे, बड़े घीरजके साथ श्रपने ध्मंका पालन करते थे, लोम छोड़कर घन इकट्ठा करते थे धोर मोह छोड़कर संसारके सुख भोगते थे ॥२१॥ [जो लोग बहुत लिख-पढ जाते हैं वे भ्रपनी विद्याका ढिढोरा पीटते हूँ, जो बलवान होते हैं वे दूसरोंको सतानेमें भ्रपनी बड़ाई सम भरते हैं, जो लोग दान देते हैं या किसी के लिये कुछ त्याग करते हैं वे चाहते हैं कि चारों शोर हमारा साम हो । पर राजा दिसीपमें यहू बात नही थी ] वे सब कुछ जानकर भी चुप रहते थे, शत्रुप्रोंस बदला लेनेकी शक्ति रहते हुए भी उन्हें क्षमा कर देते थे श्रौर दान देकर या त्याग करके भी अपनी प्रशंसा करामेकी इच्छा नहीं करते थे । [उनके इस जगसे न्यारे व्यवहारकों देखकर यही जान पढ़ता था कि] खुप रहने, क्षमा करने भौर प्रशंसासे दूर भागनेके गुण भी उनमें शान, शक्ति र त्यागके साथ




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