संस्कृत साहित्य का इतिहास | Short History Of Sanskrit Literature

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ओर ममता का त्याग; प्रिय-भप्रिय की प्राप्ति में सदा ही चित्त का एक- रस रहना ( इलोक ९); प्रभु में एकीभाव से स्थिति रूप ध्यान योग के द्वारा अव्यभिचारिणी भक्ति; एकान्त और शुद्ध देश में रहने का स्वभाव; सकाम मनुष्यों के समाज में आसक्ति का अभाव; (श्लोक १०), :तथा भअध्यात्म-ज्ञाना में नित्य स्थिति और तत््वज्ञान के अर्थरूप परमात्मा को सत्र देखना, यह सब तो ज्ञान है और जो इससे विपरीत है, वह अज्ञान है । ( श्लोक ११ ) । 'अध्यात्म-ज्ञान-नित्यत्व” वास्तव में संस्कृत साहित्य के परमोच्च भादर्धों का बीजतत्त्व है । प्रसिद्ध जमंन तत््ववेत्ता शोपनहार ने कहा था, *'उपनिपद्‌ मेरे जोवन काल की ढाढ़स हैं । मृत्यु के पश्चात्‌ भी थे मेरे ढाढ़स रहेंगे” । किसी ने यह उचित ही कहा है, “संस्कृत के मर जाने पर कौन जीवित रह सकता है, और संस्कृत के जीवित रहने पर कौन मर सकता है ? कुछ बिंद्वानु जो संस्कृत साहित्य की इस मूलभूत विशेषता से पूर्णतया परिचित नहीं हैं, इसे ग्रीक और छातीनी की भांति 'मृत भाषा' कहने के आदी हैं, क्योंकि यह अब बोलचाल की भाषा नहीं रही । परन्तु भली प्रकार जांच करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि संस्कृत भाषा में सजीव होने के प्रामाणिक लक्षण विद्यमान हैं। भारत में काफी परिवार ऐसे हैं जिनकी मातृभाषा संस्कृत है । समय-समय पर पण्डितों में पारस्परिक शास्त्राथं संस्कृत भाषा में होते हैं । वाद-विवाद प्रति- १. केवल एक स्वेष्षक्तिमानु परमात्मा को ही भ्पना स्वामी मानते हुए, स्वाथं भर अभिमान का त्याग कर के, श्रद्धा भक्ति के साथ, 'परम प्रेम के साथ प्रमु का निरन्तर चिन्तन करना “अव्यभिचारिणी' भक्ति है । २. जिस विद्या के द्वारा आत्म-वस्तु और अनात्म-वस्तु का विवेक 'आप्त हो उसे अध्यात्म-ज्ञान कहते हैं । | ९




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