सीता | Sita

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Sita by पण्डित रूपनारायण पाण्डेय - Pandit rupnarayan pandey

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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हृश्य। | पहला अंक | ९ ही असंख्य पक्षी बोल उठते थे । कंजोंमें असंख्य फूलोंकें ढेरके ढेर दिव्य हसीके समान एक साथ खिल उठते थे । निय्य प्रातः कोल स्वामी की यही पूजा होती थी । निय इसी पूजा के साथ प्राणनाथकी पूजा करके मैं भी सनाथ होती थी और मन-ही- मन गवंका अनुभव करती थी । निय दोपहरको आश्रमके आँगनमें पीपछकी घी छाँहमें स्वामीके साथ बैठकर स्थिर सौम्य इयाम बनका चित्र देखा करती थी-बह सूयके प्रकाशसे उज्ज्जछ सूनसान सन्नाटेसे भरा हुआ जंगल निहारा करती थी । सन्ध्याके समय गोदबरीके किनारे जाकर शिढाके ऊपर-कभी अकेठे और कभी प्राणनाथके साथ-बेठती थी । दूरपर ऊपरकी ओर आँख उठाकर देखती थी अनेक प्रकारके रंगोंका विचित्र प्रवाह देख पड़ता था- नीछे पीछे काढे छा रंगोंका समु द्रसा उमड़ पड़ता. था । रंगोंकी बह सुन्दर रागिनी प्रेमके स्वप्रकी तरह शान्त और मनोहर जान पड़ती थी । क्रमश किनारे पर रातका अन्धकार जब घना हो आता था तब मैं बिश्राम-कुटीमें ठोट आती थी ।-आहा क्या इस जीवनमें में उस सुन्दर दृदयकों फिर देख पारउऊँगी ? सचमुच मांड- वी कह हृदय और शोभा फिर देखनेको मेरा बहुत जी चाहता है / माण्डवी--यह तुम्हारा कैसा खयाल है जीजी ? बहाँ तुम वन- देवी थीं आज यहाँ ग्दछूकषमी हो । उन सब बातोंको भूल जाओ .। वह दुःस्वप्न अपने मनसे दूर कर दो । राजमहदलको प्रकाशित करती हुई अन्तःपुरमें रहो सीता--दुःस्वप्न ? तुम माण्डबी उसे दुःस्वप्न कहती हो ? तुमने गहन बनका वह मघर मनोहर दृश्य नहीं देखा इसीसे तुम ऐसी बात कहती हो । आहा वह हेमन्त ऋतुका स्थिर निमुक्त आकाश--वह बसन्त-पवन जो ज्वार की तरह जैसे किसी अजाने सागरके ऊपर-




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