सम्राट अशोक | Samrat Ashok

Samrat Ashok by चन्द्रराज भंडारी विशारद - Chandraraj Bhandari Visharad

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( हे ) है ने पथ्चाताप ।. जब मृरोन्द्र उसे क्षमा कर देता दै तब वह अपनी छाती तानकर कहती है सगेन्द्र में तुम्दारी क्षपाकों लात मारती हूं। मैंने न तो नसीकों क्षमा किया है न किसीसे घमा चाहती हूं। मृगेस्द्र 1. मु अपने गिरनेका दुःख नहीं है अपनी ही शक्तिसे ऊपर चढ़ी थी और गिर पड़ी । इसका कोई दु.ख्व नहीं है। स्त्री जीवन घारण करके भी मैंने एक राज्य पर शासन किया यही क्या कम रे ? महाराज में जहरका प्याला पी चुकी ह। अब नरककी सीषण असिमें जलने जा रही हू । और साथमें छे जा रही ह उस बौद्ध भिक्षुको अथाह चाह इतना कह कर वह उसी समय पतित ही जाती है। मानो आकाशरसे एक चम- कता हुआ नक्षत्र टूर पड़ा मानों पापका जलता हुआ चिराग बुझ गया मानों कृतन्वताके लिरका मुझुट गिर पड़ा दमारी तो समकमें ही नहीं आता कि दम इस चरित्रकों स्वरगका कहें या नरकका अथवा मर्त्य॑ छोकका । आत्मामिमान स्वर्गका छृत्य नरकका और जन्म मत्यंका। नारी चरितकी अद्भुत सष्टि है । हां इसी प्रकारका चित्र द्विजेन्द्र बाबूकी गुलनारमें भी पाया जाता है। मृगेन्द्रका पुत्र जितेन्द्र एक काम्मिष्ट दरढ़ प्रतिश्ञ एवं शुद्ध चरित्र युवक है।. वह दरिद्वारमें चिदानन्द स्वामीके आश्रममे पढ़ता है । सबसे पहले हम उसे संध्याके समय एक जंगलमें देखते हैं । वह अपने विचारोंमें मझ है । इतनेमे ही एक हरिणी आकर उसकी चिचार श्ठ खला का तोड़ देती है । और उसके साथ ही इन्दिरा उसके सम्मुख था खड़ी होती है। उसे देखते ही उसके श्याम मेघ सद्गश हृद्यमें सौन्द्य्य की चिजली चमक जाती है । उसके हृदयकी बेखिली प्रेमकली उसे देखते हो खिल उठती है । उसके शुद्ध हदयमें तरद २ के मनों विकार जास़त दो उठते




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