योगवाशिष्ठ | Yogavashishtha

Yogavashishtha by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रथमवेराग्य प्र ० । ११ बाहर से अपने अन्तःपुर में आके शोकसहित स्थित भये । हेभारद्दाज ! राजकुमार च्यपनी सब चेष्टा ओर रससंयुक्त इन्द्रियों के विषयेंकको त्याग वेठे और उनका शरीर टुर्बल होकर मुखकी कान्ति घटगई । जैसे कमल सूखके पीत व हाजाता है तेसेही रामजी का मुखपीला हेंगया और जैसे सूखे कमल पर मैंवरे वेठते हैं तैसेही सूखे मुखकसलपर नेत्ररूपी मैंबरे भासने लगे । जैसे शरत्काल में ताल नि्मलहोता है तंसेही इच्ठछारूपी मलसे रहित उनका चित्तरूपी ताल निर्मल होगया ओर दिन पर दिन शरीर निदेल होतागया वह जहां बेठें तहांही चिन्ता संयक्त वैंठेरहजावें और हाथपर चितुकघरके वेठें। जवटहलुवे मंत्री बहुत कहें कि, हे प्रभो ! यह स्नान सन्ध्या का समय हुआ है अत्र उठो तव उठकर स्नानादिक करें अधांत जोकुछ खाने;पीने, बोलने, चलने च्जौर पहिरनेकी क्रियाथी सोसव उन्हें बिरस होगई। तब लक्ष्मण अर शत्रुष्तभी रामजीको संशययुक्त देखके उसीप्रकारहो बैठे और राजादशरथ यह बात्ती सनके रामजी के पास अआाये तो क्या देखा कि रामजी महाकृश होगये हैं। राजाने इस चिन्तासे आतुर हो कि, हाय २दनकी यह क्या दशाहुई रामजीको गोदमें बेठाया अर कोमल सुन्दर शब्दसे पूढनेलगे कि, हेपत्र! तुमको क्या दुःख प्राप्तहुआरे जिससे तुमशोकवान्‌ हुयेहो ? रामजीने कहा कि, हे पिता ! हमको तो कोई दुःखनहीं है ! '्योर ऐसेकहके चुपहोरहे। जब इसीप्रकार कुडदिनवीते तो राजा और सब खियां वड़ीशोक- वान्‌ हुई । राजा राजमांत्रियोंसे मिलके विचार करनेलगे कि, पुत्र का किसीठोर विवाहकर- ना चाहिये च्और यहभी विचार किया कि,क्या कारण हे जो,मेरे पुत्र शोकवान्‌ रहते हैं। तब उन्होंनेवशिप्ठजीसे पूछा कि,हेमुनीइवर ' मेरे पुत्र शोकमें क्यों रहतेहें? वशिछ्ठजीनेकहा हे राजन! जैसे एथ्वी,जल, तेज, वाय॒ और आकाश महाभूत अल्पकार्येमें बिकारवान्‌ नहींहोते जब जगत्‌ उत्पन्न और प्रलय होताहै तब विकारवान्‌ होतेहें तैसेही महापुरु- पा अल्पकार्य में विकारवात्‌ नहींहोते। हे राजन्‌! तुमशोक मतकरो । रामजीकिसी अ्थके निमित्त शोकवानहुये होंगे;पीछेसे इनको सुखमिलेगा। इतनाकह बाट्मीकिजी वोले हु थारद्माज ! ऐसेही वशिछ्ठजी च्यौर राजा दशरथ विचार करते थे कि, उसीका- लमें विड्वामित्रने अपने यज्ञके अर्थ राजा दशरथके उहपर च्आकर दारपालसे कहा कि, राजादशरथसे कहो कि,'“गाधिके पुत्र बिइवामित्र वाहर खडेहेंहारपालने आकर राजासे कहा किद्देस्वामी ! एक बड़े तपस्वी दारपर खड़ेहें आर उन्होंने कहाहे कि, राजा दशरथके पास जाकेकहोकि, विड्वामित्र आ्आयेह । हे भारदाज ! जब इसप्रकार हारपाठने आकर कहा तब राजा,जो मंडलेडवरों सहित देंठाथा और वड़ातेजवानथा, सुवर्णके सिंहासनसे उठ खड़ाहुआ और पैदल चला । राजाकी एकवच्योर वशिष्ठजी व्यौर दूसरी ओर वामदेवजी और सुभटकी नाई मंडलेइवर स्तुति करतेचले और




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