सांख्य तत्त्व मनोरमा | Sankhya Tatva Manorama
श्रेणी : दार्शनिक / Philosophical, साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
29.7 MB
कुल पष्ठ :
226
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about डॉ. दीनानाथ पाण्डेय - Dr. Dinanath Pandey
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)( र ) पुराणों में पुरुष के स्वरूप को ढढ़ने का प्रयास किया है । वेदिक साहित्य में इस ओर संकेत किए गए हैं। सहारा पुराणों में पुरुष का विशुद्ध रूप नहीं मिलता । वास्तव में पुरुष का जितना विशुद्ध रूप सांख्यकारिका में मिलता है वसा अन्यत्र नहीं । पुरुष स्वरूप के बाद हमने ईश्वरवाद पर प्रकादय डाला है तथा पुरुष से ही इसे विकसित माना है। आचाये माठर ने भी पुरुष को ही परमात्मा कहा है । हमारी दृष्टि में अवतारवाद या ईश्वर का सगुण रूप सीमित है। भारतीय दर्शन में बौद्धों की प्रतिक्रिया स्वरूप यह ब्राह्मणवादी व्यवस्था की देन है । ईश्वर कभी भी देहधारी जीवात्मा के रूप में पृथ्वी पर अवतरित नहीं होता । दिव्य आत्माएँ ही यश बल समृद्धि पराक्रम ज्ञान आदि षडेश्वर्य से युक्त हो पृथ्वी पर ईदवर कहलाती है । यह सत्य है कि सांख्य का पुरुष उपासना का विषय नहीं बन सकता इससे सम्प्रदाय नहीं बन सकते और धार्मिक प्रभाव निष्प्रभावी हो सकता है । सांख्य का ईश्वर घटघटवासी सर्वे प्रकाशक तत्त्व है वह कर्म फलदाता नियन्ता एवं सृष्टि- कर्ता नहीं हो सकता । सांख्य प्रमेय प्रधान शास्त्र है। प्रमेयों का ज्ञान प्रमाणों से होने के कारण इस शास्त्र में प्रमाणों की चर्चा आवश्यक हो जाती है । सांख्य में प्रत्यक्ष अनुमान तथा आप्तवचन त्रिविध प्रमाण माने गये हैं । प्रमेय पुरुष प्रकृति महत् अहंकार मन सहित एकाददषेत्द्रियाँ पब्च तन्मात्र तथा पब्च महाभूत हैं। हमारी यह मान्यता है कि पश्च महाभूतों का ज्ञान प्रत्यक्ष से पश्च- पन््मात्र से प्रकृति तक का ज्ञान अनुमान से तथा पुरुष का ज्ञान शब्द या आप्तवचन से होता है । श्रुति ही शब्द प्रमाण है । अब तक किसी आचायें ने पुरुष को शब्द प्रमाण का विषय नहीं कहा है । स्वर्ग अपवर्ग उत्तर कुरु नन्दन वन आदि सांख्यीय प्रमेय नहीं हैं। जबकि आचार्यों ने इन्हें शब्द प्रमाण का विषय कहा है । भोग एवं कंवल्य जीवात्मा के स्वार्थ हैं न पुरुष के और न ही प्रकृति के । इसी आधार पर हमने जीवात्मा की सत्ता सिद्ध की है जो संघात रूप प्रकृति एवं संघात से परे पुरुष का संयोग है । जीवात्मा की अनेकता को प्रतिपादित करने वाली युक्तियों की हमारी व्याख्या स्वतन्त्र एवं मौलिक है जिसका अन्यत्र कहीं भी संकेत नहीं है। इससे पु्व॑ आचार्यों ने चिद्रप पुरुष की सत्ता सिद्ध की थी तथा उसी का बहुत्व स्थापित किया था । परम्परा पुरुष बहुत्व एवं पुरुषंकत्व के आधार पर सांख्य एवं वेदान्त में भेद मानती है । हमारी दृष्टि में यह धारणा नितान्त असंगत है। आचायें माठर को पुरुषेकत्व ही
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