पाश्चात्य दर्शन | Pashchatya Darshan

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Pashchatya Darshan by चन्द्रधर शर्मा - Chandradhar Sharma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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एनेब्जिमेनीज पाइयेगोरस भादि जल-जन्तुओं से पक्षी और पशुभों के द्वारा क्रमश मचुष्य का विकास हुआ है । एनेक्जिमेन्डर ने युरोप में पहूली बार पृथ्वी को गोल और सूर्य को पृथ्वी से कई गुना बड़ा बताया । उन्होंने ही प्रथम म्नचित्र भी बनाया । एनेक्जिमेनीज ( 708810006065 )--ये एनेक्जिमेण्डर के शिष्य बताये जाते हैं । इनमें न तो अपने गुरु जैसी प्रतिभा थी और न वेसी सौलिकता । इन्होंने वायु को परम तत्त्व माना और उसे असीम और अनन्य बताया । वायु ही अग्नि का रूप लेती है और तरल होकर जल बन जाती है एवं जम कर पृथ्वी के रूप में परिणत हो जाती हैं । आत्मा भी प्राणवायुद्धी है । इससे गति और जीवन का संचार होता है । समस्त लोक वायु के आधार पर टिके हुए है । माइलेशियन मत का महत्त्व उसके सिद्धान्तों की अपेक्षा उसकी अन्वेषणात्मक प्रदृत्ति के कारण अधिक है ।. ४ . माइलेशियन मत के बाद पाइथेगोरियन मत का जन्म हुआ । इसके संस्थापक पाइथेगोरस ( ?प्र0880785 ) थे । इनमें वैज्ञानिक विश्लेषण भौर रहस्यवादी साधना का समन्वय था । इनका समय ईसा से पूर्वे छठी शताब्दी है। गणित के थे संस्थापक माने जाते है । रेखागणित में इनके सलाम से इनका एक सिद्धान्त अभी तक प्रचलित है । इनके अवुसार सब पदार्थ संख्यामात्र [ ेंप्प००७१४ ) हैं । संगीत को ये मानसिक दोष दूर क रनेका साधन मानते थे और दर्शन को सर्वोत्तम संगीत कहते थे । जेसे संगीत में विविध स्वर एक ही तान को ध्वनित करते हैं वेसे ही दर्शन में भी सब सांसारिक पदार्थ परस्पर भिन्न होते हुए भी एक हो तत्व का राग अलापते हैं । माइ- लेशियन दार्शनिकों ने द्रव्य (04808) का विवेचन किया । पाइथेगोरस ने स्वरूप (0०00० ) की प्रतिष्ठा की । स्वरूप अतीन्द्रिय सामान्य भर विज्ञानरूप है । कभेद समन्वय और सामंजस्य इसी के कारण संभव होते हैं। गणित का विषय विज्ञान है । इन्द्रियों द्वारा अनुभूत जगत मे जितने भी विभिन्न पदार्थ हैं वे सब विज्ञानों की क्षीण प्रतिकृति हैं । पाइथेगोरस के इन विचारों का प्रभाव प्लेटो के विज्ञानवाद पर पड़ा है। पाइथेगोरस ने अपने समाज की स्थापना की । इस संस्था के सदस्य घामिक और नैतिक जीवन बिताते हुए दर्शन की चर्चा और रहस्यमय साधना करते थे । वे निरामिष भोजी थे और पुनजन्म में विश्वास रखते थे । आत्मा की अमरता और ईश्वर की प्रभुता को मानते थे । त्याग तपस्या और संयम पर उनका विशेष ध्यान था । कमंबाद में उनकी अटल श्रद्धा थी । प्राक्तन कर्मों से यह जीवन बना है और इस जन्म के कमें पुन्जेन्म के स्वरूप का निर्माण करेगे । शुभाशुभ कर्मों का फल अवश्य भोगना पडता है। गुरु और शिष्य के साक्षात्‌ सम्पक को वे बहुत महत्त्व देते थे । असली विद्या गुरुकृपा से प्राप्त होती हैं। संसार जन्म-मरण का चक्र है । इस भवचक़ से छुटकारा पाना मानव-जीवन की सार्थकता है । यह ज्ञान से ही संभव हो




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