कौमुदी | Kaumudi

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Kaumudi by शिवरानी देवी - Shivrani Devi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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तर्का श्शे माँ घूम रहे ही । सुना अरब रामू महतो खेतन पर हाथ लगावा चाहत हैं । हमसे ई कुन्याय न देखा जाई बारी-बगीचा बेचेन हम चुपाई मारके रह गयेन मगर खेत न बेचे देव । उनके श्रागे-पीछे कोऊ न होय दमरे तो भगवान्‌ का दिया लड़का है । ओदहका कुछ चाही कि न चाही ? रामजस झाकाश की शोर देखकर बोला--खेत बेचे चाहे श्राग लगाय दे । हमका का करे का है । जो जैस करी झापै भोगी । राम ने छोड़ी श्रजोध्या मन माब सो ले । धघर्मी आँखें निकाल कर बोली--साधु बन के मिखारिन तो बनाय दिल्लो अब का करे पर लागे हौ । अबो नाहीं सरमात हो । सरमाँव काहे का । का कतो चोरी कीन है ? जौन हमार घरम रहा तौन कीन । जौन मनई अपने भला सोचे ऊ नीच कहावत है । तुम सोचत होइही चार जने साबसी कै दिहेन तो हम देवता होय गये ? हम श्रापन घरम न छाँड़ब चाहे कोई साबसी करे चाहे मिन्दा करे । सबका नेक-बद भगवान्‌ देखत हैं । धर्मी की क्रोघार्नि प्रचण्ड हो गई । बोली--मत डींग मारो बहुत । कोऊ की दाल गिर परी तो कहे लाग हमका तो सूखे नीक लागत हे । जो अपने लरकन के मुंह का कौर छीन के कूकुर का खवाय दे ओहका हम दानी न कहब हम ईका पाप समुश्कित है । का बकत हो । हम जमीन जैजात भाई का दे दीन तो का भवा तुम का तो गरे लगाये इन श्रौर जब लग परान रही तब्र लग लगाये रहब । हाँ मरे पीछे का दोई नाद्दीं जानित ।




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