स्वामी विवेकानन्द से वार्तालाप | Swami Vivekanand Se Vartalap

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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लग्दन में भारतीय योगी था उनके उपदेशों को में कहीं भी प्रमाणरूप से उपस्थित नहीं करता, और न तो में यही दावा करता हूं कि किसी गप्त पुस्तक यां हस्तलिखित ग्रन्थ से मत कोई गुप्त विधा सीखी है 1 न तो में किसी गुप्त-समिति का सदस्य हूँ और न में उस प्रकार की समिति से संसार का किसी प्रकार कल्याण होने का विश्वास ही रखता हूँ । सत्य स्वयंप्रमाण है। उसे अंधेरे में छिपकर रहने की कोई आवश्यकता नहीं, वह तो अनायास ही दिवाठोक को सहन कर सकता है।'” मेने पूछा, * तो, स्वामीजी, आपके मन में कोई समाज अथवा समिति प्रतिष्ठित करने का संकल्प नही है?” उत्तर--नहीं, में कोई भी समिति या समाज नहीं खड़ा करना चाहता । में तो केवल उसी आत्मा का उपदेश करता हूं, जो सब प्राणियों के हृदय में गूद़ भाव से अवस्थित है और जो सबकी अपनी सम्पत्ति है। यदि कुछ दृढ्चेता पुरुप आत्मज्ञान की प्राप्ति कर उसे अपने देनन्दिन जीवन में उतार छें, तो प्राचीन युगों की तरह, अभी भी वे सारी दुनिया में हलचल मचाकर उसका रूप बदल दे सकते हैं । प्राचीन काल में एक-एक दूृदचित महापुरुप अपने-अपने समय में ऐसे ही एक-एक नवीन युग का प्रवर्तन कर गये है । मेंने फिर पूछा, “स्वामीजी, आप कया भारत से यहाँ हाल ही में आये है?” (वयोकि उनका मुख देखने से प्राच्य देश की प्रचण्ड सुर्प-किरणों की याद आती है ।) स्वामीजी ने उत्तर दिया, “नहीं, सन्‌ १८९३ ई० में अमेरिका के शिकागों शहर में जो घर्मे-महासभा का अधिवेशन हुआ था, उसमें मेने हिन्दू-धर्म का प्रतिनिधित्व किया था । तय से




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