हम्मीर हठ | Hamir Hath

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Hamir Hath by श्री जगन्नाथदास - shree Jagannathdas

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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हग्मीर-हठ पु मनो जीव पापीन को जम्मराजा, दियो दंड सोई सबे धूम घोरें ॥२७॥। ( कविस ) खेलत सिकार भारखंड में अझलाउदीन, मारत झंगनि सगतैनी लिए संग मे। वेगम कहत मरदट्टी & माहताब जैसी, जगत जुन्दाई जाके जोबन-तरंग मैं ॥ देख्यो तिन तहाँ मीर महिसा मेंगोल + कहूँ, काम तें सरसख अभिरास रूप-रंग मे । हाय मिले केसे या कराह सुख लागी, '.. दुख लाग्यो देन असित अनंग अंग-झंग मैं ॥२६॥। लाग्यों मन मीर सो न घीर धघान्यो जात उर, भूली-सी फिरति ढुख कासो कहे गात के । चित्त चटपटी अटपटी सब वात घात, बनत न एकौ जात बनत न लात के >६ ॥। # मरहट्टी वेगम से यदि कमलादेवी समभ तो काल विरुद्ध पड़ता है, क्योंकि कमलादेवी रणुथम्भगढ की लड़ाई के पश्थात्‌ पकडी गयी थी । पर यह सन्भव हे कि अला- उद्दीन जब पादशाट होने के पहिले दक्षिण गया था तव कोड सुन्दर मरदट्टी सी बहा ने लाया रहा हो श्र उसे श्रपनी बेगम वना लिया हो । +- अलाउद्दीन, मीर मुहम्मद मगोल नामी सरदार से झपनी वेगम से गुप्त न्यमिचार करने के सन्देह पर करू दूध हो गया था । वह भागकर हम्मीरदेव की शरण में चला गया या और उसी के कारण लडाई हुई कवि उसी को महिमा मगोल के नाम से लियता ₹। >६ पेर को जाते नददीं वनता जेसे लोग कहते ट, ओोस को [निर्धात्‌ 'ब्रास सी देखन नहीं बनता या पाठ यदि ता तके रक्या जाय तो यह अर्थ हो सकता है कि जाते नहीं वनता उस शोर देख रही है।




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