सूरसागर भाग २ | Soorsagar Part 2

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Soorsagar Part 2 by श्री जगन्नाथदास - shree Jagannathdas

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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दर स्ह बह्य-वाण मैः गर्भ उवास्यो, टेरत जरी जरी, विपति-काल पांडव-बधु वन में राखी स्याम ढरी । करि भोजन अवसेस जज्ञ को! त्रिभुवन-भूख हरी। पाटः पष्ठ षाड आह सँ लीन्हो राखि करो । नच नव रच्छ करी भगतं पर जवं जव विपदि परी । मद्रा माह মী परया सूर प्रभु, ऋं ` सुधि विसरी ?॥१६॥ र ओर न काइुहि जन की पीर । अवे ज्व दान इती भयो, तच तब छपा करी बलवीर गज वल-हीन विलोकि दसो दिसि, तथ ईरि-सरन पर्थौ करनासिधु. वाल, दरस दै, सव॒ संताप . हस्यो गोपी-ग्वाल-गाय-योसुत-हित सात दिक्स गिरि सीन मागथ हत्या, सुक्त चष कीन्हे, भृतक बिघ-सुत ' दीन््यो श्री रृसिह वपु ध्र्यौ श्रसुर इति, भक्त-वचन प्रतिपारचौ सुमिरन नाम, दुपद-तनया कौ पट नेक विस्तार मुनि-मद मेटि. वास-बअत राख्यो, अंबरीष-हितकारी लाखा-एह ते, सन्रुसेन तै, पांडव-विपति निवारी वरुन-पाल व्रजपति मुकरायो, दावानल-दुख टारचओ ग्रह आने वसुदेव-देवकी, कंस महा खलः मारयो मनन £ पभू, १७१ (द) एव ससि धैरी--$ ) (क) सोर । कमे पनं राख्या गते रः क (न) चट नारायनी 1 2) মত ३




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