संगीतज्ञों के संस्मरण | Sangeetagyon Ke Sansmaran

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(६) था श्रौर उसकी क़द्र करना श्रौर उसका मान क्ायम रखना बड़ा ज़रूरी समभा जाता था । मैंने ऊपर जिक्र किया है कि हमारा संगीत मध्य युग से झाज तक राजदरबारों में ही फला-फूला है । वास्तव में हर छोटी-बड़ी रियासत में त्यौहार श्रौर हरेक खुशी के श्रवसर पर राजा महाराजा नवाब श्रौर जागीरदार शास्त्रीय संगीत सुना करते थे श्र श्रच्छे-ग्रच्छे इनाम दिया करते थे । राजदरबारों के संगीत-प्रेम की यह खबर दूर-दूर तक फेल जाया करती थी श्रौर हर गाने-बजाने वाले के दिल में यह इच्छा होती थी कि ऐसी रियासतों में जाय । पर उनमें से बहुतों को भ्रपनी योग्यता का सही श्रन्दाज़ा नहीं होता था । इसलिए उन्हें सदा कामयाबी हासिल नहीं होती थी | एक साल मैसूर राज्य में सारे हिन्दुस्तान से सैकड़ों गाने-बजाने वाले पहुँच गए । गुणीजनखाने के व्यवस्थापक ने सब का नाम ले लिया श्रौर बख्यी सुब्बन्ता बीनकार के पास जो मसुर महाराजा के गुरु भी थे सबको पेद्य किया । बख्यी जी नें सबकी एक-एक चीज़ सुनी श्रौर उनमें से पाँच-सात गाने-बजाने वालों को महाराजा के सुनने के लिए पसन्द किया । बाकी गाने-बजाने वालों को महाराजा के हुक्म से झ्राते-जाने का खर्चा देकर बिदा किया श्रौर यह भी कह दिया कि आ्राइन्दा आ्राप बिना महाराज के बुलवाये न झ्रायें । ऐसी ही घटनाएं कई राज्यों में हुईं । इस बात का निप्कर्ष यही है कि गकँयों को शअ्रपने काम में भ्रच्छी तरह जानकारी हासिल करनी चाहिए झ्ौर साथ ही साथ वैसी मेहनत भी । जब वे झ्पने काम में पूरी तरह कामयाब हो जाएँगे तो श्रपने झाप उनका नाम होगा आर उनकी तारीफ दूर-दूर तक पहुँच जाएगी श्रौर जगह-जगह से उनके पास निम- न्त्रण ग्राएँगे । इस प्रकार उनका मान बढ़ेगा श्र दुनियाँ की नज़र में उनकी इज्जत होगी । भ्राज से कोई बीस-बाईस साल पहले एक सितार-




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