महोषध पण्डित | Mahoshadh Pandit

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Mahoshadh Pandit by आनंद कोशल्यायन - Anand Kaushalayan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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4 महोषध पण्डित को प्रकट करू उसने झ्रादमी का रूप बनाया श्रौर रथ का पिछला हिस्सा पकड़ दौड़ने लगा । रथ में बठे श्रादमी ने पूछा तात क्यों ्राया है ? तुस्हारी सेवा करन के लिए । उसने ्रच्छा कह रवीकार किया। जब वह रथ से उतर शारी रिक- कृत्य करने गया शक्त ने रथ में बैठ जोर से रथ हाँक दिया । रथ के मालिक ने उसे रथ लिए जाते देखा तो टोका रुक-रुक मेरा रथ कहाँ लिए जाता है ? तेरा रथ दूसरा होगा । यह तो मेरा रथ है । दोनों भऋगड़ते हुए शाला-द्वार पर थ्रा पहुँचे । महोषध पण्डित ने भगड़े का कारण जान दोनों से प्रदन किया मेरे निर्णय को स्वीकार करोगे ? हाँ स्वीकार करेंगे । मैं रथ को हाँकता हूं। तुम दोनों रथ को पीछे से पकड़कर ही । जो रथ का स्वामो होगा वह रथ नहीं छोड़ेगा दूसरा छोड़ गा। यह कहकर उसने भ्रपन श्रादमी को श्राज्ञा दी कि रथ हाँके । उसने वसा ही किया । दोनों जने पीछे से रथ को पकड़े चले । रथ का मालिक थोड़ो दूर जाकर रथ के साथ दौड़ न सकने के कारण रथ को छोड़ खड़ा हो गया । शक्त रथ के साथ दौड़ता ही चला गया । महोषधघ पण्डित ने रथ रुकवा श्रादमियों को कहा एक शझ्रादमी थोड़ी ही दूर जा रथ को छोड़ खड़ा हो गया । यह रथ के साथ-साथ दौड़ता हुआ रथ के साथ ही रुका । इसके दारीर में पसीने की बूँद भो नहीं है । न साँस दी चढ़ी है । यह निर्भय है । इस की पलकें भी नहीं हैं । यह देवेन्द्र बार है । तब उसने प्रदन किया क्या तू देवराज इन्द्र है? दा ह् किसलिए ग्राया ?




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