संत सुधा सार | Sant - Sudha - Saar

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आचार्य विनोबा भावे - Acharya Vinoba Bhave

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वियोगी हरि - Viyogi Hari

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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चास॑ न । नियुंण निराकार ... सगुण निराकार सगुण साकार साकेतिक विश्वरूप हे समग्र परिच्छिन्न ... श्रंशावतार पूर्णावतार लेकिन खूनी यदद है कि हमारे सतों की प।चन-शक्ति प्रखर होने के कारण ये सारे भिन्न मिन्न दर्शन उनको विरोधी नही मालूम होते चल्कि इन सबको वे एकसाथ इजम कर लेते हैं । मिवाल के तौर पर तुलसीदासजी पद्ष तो लेंगे सगुण- साकार का लेकिन निगु णु-निराकार से पूर्णावतारतक की सच तालिका वे स्वीकार करेंगे । शकसाचाये झभिमानी बनेंगे निगुणु-निराकार के लेकिन नित्य शुद्ध बुद्ध मुक्तरवभाव॑ के साथ निपुरसुन्द्री का मी स्तोत्र गा सकेंगे । हों शायद पूर्णावतार की कल्पना वे नहीं निगल सकेंगे । क्योंकि ंशेन छृष्णुः किल संबभूव ऐसा वे लिख चुके हैं। फिर भी भाविकों के साथ पूर्णावतार के भजन में भी वे लीन हो जायें तो श्राश्चयें की बात नहीं क्योंकि जब वे सारा ही मिथ्या समभते थे तो किसी चीज के लिए क्यों हिचकिचाना कुछ विचारक और उपासक ऐसे जरूर होते हैं जो श्रपना-झपना श्ाग्रह रखते हैं जेसे मोहम्मद पैगम्नर सगुण-निराकार माननेवाले ये । यद्यपि निशु शु निराकार का वे निषेध नहीं करेंगे किंठु सयुणु-साकार का अवश्य निषेघ करते हुए वे दौख्र पढ़ते हैं । वैसे छुरान में वज्दुल्नाद याने श्रप्नाह का चेहरा ये शब्द करें जगदद झाये हैं जिनके आ्राघार पर मूर्तिपूजा की श्रतिशयता का तो चचाव




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