आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और हिंदी आलोचना | Acharya Ram Chndra Shukla Aur Hindi Alochana

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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४ आनन्द को काव्य का चरम लद्य सानने का अथ है साग को ही अंतिम गंतव्य स्थान मान लेना । (रस मीमांसा प० २७) । शुक्लजी का दूसरा तक यह हे कि साहित्य में क्रोध शोक जुणुसा दि भाव अपना सहज रूप छोड़ नहीं देते इसीलिये जव हम काइ दुः्स्रान्त कथा पढ़ते ई तो चित्त में खिन्नता बनी रहती हैं। काव्य से सनुष्य के हृदय से क्रोध शोक आदि भाव जाम्रत होते है। इसलिये लोकोत्तर आनन्द कहने से इसकी व्याख्या नहीं होती । शुक्ल जी कहते है मेरी समक मे रसास्वादन का प्रकृत स्वरूप आनन्द शब्द से व्यक्त नहीं होता । लोकोत्तर अतिवंचनीय आदि विशेषणो से न तो उसके वाचकत्व का परिहार दोता है न प्रयोग का प्रायश्चित होता है। क्या क्रोध शोक जुगुप्सा आदि आनन्द का रूप धारण करके ही श्रोता हृदय में प्रकट होते है अपने प्रकृत रूप का सवंधा विसजन कर देते है उसे कुछ भी लगा नहीं रहने देते इस आनन्द शब्द ने काव्य के मह- त्व को बहुत कुछ कम कर दिया हे--उसे नाच-तमाशे की तरह बना दिया हूं । (रस मीमसांसा प्र० १०१) । मानव-जीवन में भावों का प्रकृत रूप साहित्य मे आकर बदल सही जाता--शुक्लजी के तक की यह आधारशिला है । साहित्य के सम्बन्ध में जितनी भाववादी (झाइडियलिस्ट) मान्यताएँ है वे साहित्य को जीवन से अलग करके देखती है । शुक्लजी की मौलिक मान्यता यह है कि साहित्य के भावों और जीवन के भावों मे बुनियादी अन्तर नहीं है । क्रोध भय जुगप्सा और करुणा की अनुभूति आनन्द्मय होती हैं वह यह नहीं मानते । बहू स्पष्ट कहते हैं कि इनकी अनुभूति दुः्खात्मक होती है । जो लोग कहते है कि आनन्द मे भी आँसू आते हैं यानी करुणारस से सुख के आँसू आते हे दुख के नही वे बात टालते है । करुणारस प्रधान नाटक के दशक वास्तव मे दुम्ख ही का अनुभव करते है । (उप० प्र २७३) । शुक्ल जी ने यहां पूव और पश्चिम दोनो ओर के भावचादी विचा-




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