साहित्य स्थायी मूल्य और मूल्यांकन | Sahitya Sthayi Mulya Aur Mulyankan

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Sahitya Sthayi Mulya Aur Mulyankan by रामविलास शर्मा - Ramvilas Sharma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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गाहिस्य है रपायी मूस्य ४ ऐम्ट्िपवा बा प्रतिनिधि बन बर उसे ओर भो विदृत करता जा रहा है। नलत हिकयों को लिजण, अस्दरप बाय पैप्टाएँ, सैदिस्स और मंसोशिस्म जेसी बीसा- रियाँ, सनसनी सेज धटनाएँ, हत्या, डरती के रोमांच वर्णन --पतनशीस दर्गे अब इस तरह थी ऐन्टियता में रस सेता है । उसी और जनसाधारण थी साहित्यिर रुचि में ऐसो दरार पड़ गपो है जो अब पाटो नहीं जा शवतो 1 इस रुचि के विस्द्ध तमाम प्राचीन संरहति को रयस्प परम्पराओ को अपना आधार बना गर जनरल को दिव सित करने का काम यूरोप का सजदूर वरगे कर रहा है। मनुष्य के भावों और विचारों का सहज सम्दन्ध उसके इच्ट्रियवोध से है। थुकल थो ने लिखा है, “आरम्भ में समुप्य जाति को चेतन सत्ता इस्डियज शान की समप्टि दे रुप में ही अधिषतर रही । पीछे उयो-उ्यों सम्पता बढ़ती गयी है सयो- र्यो मनुष्य बी ज्ञान सत्ता बुद्धिस्यवसायात्मक होती गयी है ।”' मनुष्य के शात था आधार भौतिक जगतू मे उसका कर्ममय जीवन उसका ऐस्दिय अनुभव और श्यवहार है। इच्द्रियज ज्ञान के साथ मनुष्य को भाव-सत्ता का भी जर्म होता है । समाज, प्रइतिं, परिवार आदि के प्रति मनुष्य की व्यावहारिक अनुभूति के आधार पर उसमें राग-द्रेप पदा होता है। भाव और इत्द्रियवोध का पनिष्ठ राम्बन्ध है। दुषलजी के शददं में “प्रत्येक भाव बा प्रथम अवयव विपय-वोध ही होता है।” भावों का विवास सामाजिक विकास पर ही निर्भर है । अपने प्रथम भव्य इन्द्ियदोध के कप में भाव आदिम समाज के मानव में भी मिलेगा, लेकिन अपने परिष्कत मानवीय रुप में, बहू दिवसित समाज व्यवस्था में ही सुलभ है। मनुष्य का भाव-जगतु उतना व्यापक और सावंजनीन नही है जितना उसका इस्दियबोध, पर उसके विचार-जगत्‌ से वह अधिक व्यापक है । रहि, घुणा, उत्साह आदि के भाव मानव सम्यता के आदिकाल से चले वा रहे हैं और इन्हें उचित ही स्थायी भाव की सज्ञा दी गयी है | त्रिज्ञान और दर्शन वी अपेक्षा साहित्य की व्यापकता भा यह दूसरा बारण है । व्यक्तिगत सम्पत्ति और पितृ-सत्ता के उद्भव के बाद से पिता-पुज, पतिनपत्नी, भाई-बहन, पड़ोसियों आदि में जो परस्पर भाव-सम्बस्ध कायम हुए थे--जिनेता कारण आदिम समाज व्यवस्था के बाद मानव का विकास था--बे बहुत कुछ अब भी बने हुए हैं । यह भाव-जगत्‌ बराबर समृद्ध होता गया है। मिसाल के लिए सुद्र हमण्यम्‌ भारती, रवीन्द्नाव भौर प्रेमचन्द में जो उत्कट देख-प्रेम मिलता है, बह मध्यकश्लीत कवियों के लिये दुर्भ था । देशभक्ति की भावना का विकास हमारे नये सामाजिक विकास वा ही परिणाम है। कह सकते हैं कि रति-भाव मनुष्य में पहले से है । केवल आलम्बन बदल गया है। प्रेम तो प्रेम, चाहे रंभा और उर्दशी से हो, चाहे शकर और विष्णु से, चाहे 7 है, काव्य में भ्रमिव्यंज नावाद हैं




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