पञ्चम कर्म ग्रन्थ | Pancham Karm Granth
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
15.11 MB
कुल पष्ठ :
466
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about पं सुखलालजी संघवी - Pt. Sukhlalji Sanghvi
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)पूरवेकथन श््
जहाँ कहीं प्रवर्तकघर्मका उल्लेख आता है, वह सच इसी जिपुर्षार्थवादी
दलके मन्तव्यका सूचक है । इसका मन्तव्य संक्षेपमें यदद है कि घर्म-
झुमकर्मका पछ स्वर्ग और अधर्म-अशुमकर्मका फल नरक आदि दै । घर्मा-
घर्म ही पुण्य-पाप तथा अदृष्ट कदलाते हैं और उन्दींके द्वारा जन्म जन्मान्तरकी
'चक्रप्रइत्ति चला करती है, जिसका उच्छेद शक्य नहीं है । झक्य इतना
ही है कि अगर अच्छा छोक और अधिक सुख पाना हो तो धर्म दी कर्तव्य
है | इस' मतके अनुतार अधर्म या पाप तो देय हैं; पर धर्म या पुण्य हेय
नहीं । यह दल सामाजिक व्यवस्थाका समर्थक था, अतएव वह समाजमान्य
शिष्ट एवं विहित आाचरणोंसि धर्मकी उत्पत्ति बतलाकर तथा निन्य आचरणों
से अधर्मकी उलचि बतलाकर सब तरदकी सामाजिक सुब्यवस्थाका ही
संकेत करता था | वही दल घ्ाह्मणमागं, मीमांसक और कर्मकाण्डी नामसे
प्रसिद्ध हुआ । ।
कर्मचादिओंका दूसरा दछ उपर्युक्त दलसे विठकुछ विरुद्ध इृष्ट
रखनेवाछा था । यद्द मानता था कि पुन्जन्मका कारण कर्म अवश्य है ।
दिष्टसम्मतते एवं विहित कर्मोकि माचरणते धर्म उत्पन्न होकर स्वर्ग भी देता
है । पर चह्द धर्म भी अपर्मकी तरह ही सर्वथा देय है । इसके मतानुसार
एक चोथा खतन्त्र पुरुषार्थ भी है जो मोक्ष कदलाता है । इसका कथन
है कि एकमात्र मोक्ष ही जीवनका लक्ष्य है और मोक्षके वास्ते कर्ममात्र
प्ाहे वह पुण्यरूप हो या पापरुप, देय है । यह नहीं कि क्मका उच्छेद
दाक्य न हो | प्रयत्ससे वह मी दाक्य दै । जहाँ कहीं निवतंक घर्मका उल्लेख
माता दै वहाँ सर्वत्र इसी मतका सूचक है । इसके मतानुार जब आत्य-
न्तिक कर्मनिद्त्ति भक्य और इष्ट है तब इसे प्रथम दलकी दृष्टिके विरुद्ध ढी
कर्मकी उसचिका असली कारण बतढाना पढ़ा । इसने कहा कि धर्म और
अ्र्मका मूठ कारण प्रचलित सामाजिक विधि-निषेघ नहीं; किन्ठ अद्न
और राग-द्वेष दै । केसा ही शिष्टसम्मत और विष्वित सामाजिक आचरण
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