पञ्चम कर्म ग्रन्थ | Pancham Karm Granth

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Panchmakarmgranth by पं सुखलालजी संघवी - Pt. Sukhlalji Sanghvi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पूरवेकथन श््‌ जहाँ कहीं प्रवर्तकघर्मका उल्लेख आता है, वह सच इसी जिपुर्षार्थवादी दलके मन्तव्यका सूचक है । इसका मन्तव्य संक्षेपमें यदद है कि घर्म- झुमकर्मका पछ स्वर्ग और अधर्म-अशुमकर्मका फल नरक आदि दै । घर्मा- घर्म ही पुण्य-पाप तथा अदृष्ट कदलाते हैं और उन्दींके द्वारा जन्म जन्मान्तरकी 'चक्रप्रइत्ति चला करती है, जिसका उच्छेद शक्य नहीं है । झक्य इतना ही है कि अगर अच्छा छोक और अधिक सुख पाना हो तो धर्म दी कर्तव्य है | इस' मतके अनुतार अधर्म या पाप तो देय हैं; पर धर्म या पुण्य हेय नहीं । यह दल सामाजिक व्यवस्थाका समर्थक था, अतएव वह समाजमान्य शिष्ट एवं विहित आाचरणोंसि धर्मकी उत्पत्ति बतलाकर तथा निन्य आचरणों से अधर्मकी उलचि बतलाकर सब तरदकी सामाजिक सुब्यवस्थाका ही संकेत करता था | वही दल घ्ाह्मणमागं, मीमांसक और कर्मकाण्डी नामसे प्रसिद्ध हुआ । । कर्मचादिओंका दूसरा दछ उपर्युक्त दलसे विठकुछ विरुद्ध इृष्ट रखनेवाछा था । यद्द मानता था कि पुन्जन्मका कारण कर्म अवश्य है । दिष्टसम्मतते एवं विहित कर्मोकि माचरणते धर्म उत्पन्न होकर स्वर्ग भी देता है । पर चह्द धर्म भी अपर्मकी तरह ही सर्वथा देय है । इसके मतानुसार एक चोथा खतन्त्र पुरुषार्थ भी है जो मोक्ष कदलाता है । इसका कथन है कि एकमात्र मोक्ष ही जीवनका लक्ष्य है और मोक्षके वास्ते कर्ममात्र प्ाहे वह पुण्यरूप हो या पापरुप, देय है । यह नहीं कि क्मका उच्छेद दाक्य न हो | प्रयत्ससे वह मी दाक्य दै । जहाँ कहीं निवतंक घर्मका उल्लेख माता दै वहाँ सर्वत्र इसी मतका सूचक है । इसके मतानुार जब आत्य- न्तिक कर्मनिद्त्ति भक्य और इष्ट है तब इसे प्रथम दलकी दृष्टिके विरुद्ध ढी कर्मकी उसचिका असली कारण बतढाना पढ़ा । इसने कहा कि धर्म और अ्र्मका मूठ कारण प्रचलित सामाजिक विधि-निषेघ नहीं; किन्ठ अद्न और राग-द्वेष दै । केसा ही शिष्टसम्मत और विष्वित सामाजिक आचरण




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