भारतीय दर्शन का इतिहास भाग 5 | Bharatiya Darshan Ka Itihas Bhag 5

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डॉ. एस. एन. दासगुप्त - Dr. S. N. Dasgupt

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पी. मिश्रा - P. Mishra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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दक्षिणी शव मत का साहित्य के समान[जैन लेखक थे तथा पूण सभावना है वि वे उनमे वाद वे समर्वालीन थे। नैयायिका श्रथवा यागा के विषय में उनके बहुत से वणन राजशेखर वी रचना से लिए हुए प्रतीत हाते हैं अथवा यह भी हो सकता है कि राजशेखर ने यह वणन गुशारतन से लिए हा क्योकि झनेक स्थाना पर वर न समान हैं । . गुशस्तन घहते है वि शव चार प्रवार क॑ थे जैसे शव पारुपत महाब्रतघर तथा वालसुख ।?. इनके अतिरिक्त गुणरत्न तथा राजशेखर उनके विपय में कहते हैं. जिहाने शिव वी सेवा का ब्रत ले लिया है तथा वे भरत तथा भक्त कहलाते है। किसी भी जाति के मनुष्य शिव के मरता अथवा भक्ता के वग में सम्मिलित हो सकने हैं । नेयायिव सर्द शिव वे भक्त माने जाते थे तथा व शैव कहलाते थे ।. वदेषिक दशन पाछुपत कहलाता था । हरिभद्र यह भी कहत हैं कि वरोषिका ने नया यिका के ही देवताओं को स्वी- कार किया 1 बापालिको तथा कालमुखा के श्रतिरिक्त जिनके विपय मे उनकी धामिक भियाशा तथा भ्रवैदिक व्यवहार के बिरद्ध परम्परागत श्रारोप। के अतिरिक्त हम बहुत कम जानते हैं हमारे पास दौव झागमा मे वशित पाधुपत प्रणाली का मूल ग्रथ तथा दीव दशन है । हमारे पास वायवोर्य सहिता मे वर्णित पारुपत शास्त्र श्रप्पय दीसित द्वारा सपादित श्रीवठ का शव दशन तथा श्रीकुमार एवं श्रघार शिवाचाय द्वारा बिवेचना १ शव याशुपत इ्चव महाब्रत घरस तथा तुर्या कालमुखा मुख्या भेदा इति तपस्विनामु । हरिमद्र की पडदशन-सामुच्चय पर गुणरत्न की टीवा पृ० ५१ (सौ भी वा सस्क रण कलकत्ता १९०५) । अत गुणरतन के श्रनुसार महाब्रतघर तथा कालमुख पणतया भिन्न हैं। गुणरत्न ने कापालिक वा उल्लेख नही किया है। दवा के यह चार वग श्वारम्भ में ब्राह्मण थे तथा उनके पास पापवीत था ।. उनवा झतर मुख्यत भिन्न प्रकार को धार्मिक क्रियाश्ना तथा श्राचार के कारण था -- झाधार भस्म कौपीन जटा यत्तोपबीतन स्व स्वाचारादि भेदेन चतुर्घा स्युस तपस्वित 1 रामानुज न बापालिका तथा वालमुखा क॑ नाम वा वणन वेदों के क्षेत्र से बाहर (विद वाह) क्या है। श्रानद मिरी की झाकर विजय में भी कापालिको को वंदा के शेत्र से बाहर दसित किया है। परतु वहां दापालिका का वणन नहीं है । देखिए गुणरत्त का टाका पृ० ५१ । दंवता विषयों भेदानास्ति नयाधिक समम वेदपिवानाम्‌ तत्वे तु--विद्यते सौ निददयते । नहरिनद्र इत घडटाान समुच्चय पृ रइई ।




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