भोज प्रबन्ध | Bhoj Prabandh

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Bhoj Prabandh  by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भाषादीकासमेतः । १७ औरभी है कि-इसके मार देनेंसे दृद सिंघुलराजाके परम भीतिपान महाशूरबीर जो कि तेरी आज्ञामें स्थित हैं वेही तुझांरे नगरको ऐसे नष्ट कर देंगे जैंसे दीखनेमें दारुण चं- चल मेघ नगरको डबोके नष्ट करते हैं. बहुत दिनसेभी तुम मजबूत जडवाढे बन रहे हो ( तोभी ) विशेष करके पुर- वासी छोग भोजके ऊपर प्रथ्वीका भार मान रहे हैं ॥ किच-सत्यपि सुकतकर्मणि दुर्नीतिश्वेत्‌ श्रियं हरत्येव ॥ तैठैस्सदोपयुक्तां दीपशिखां विदूढयति हि वाताढिः ॥ २६ ॥ औरभी है-सुकतकर्म होनिमेंभी जो दुर्नीति ( खराब नीति ) होवे तो वह लक्ष्मीकी शोभाकों हरतीही हैं जैसे तेढसे अच्छी तरह भरपूर हुईभी दीपककी शिखाकों वा- युका समूह नष्टरी कर देता है ॥ २६ ॥ देव पुत्रवथ क्ापि न हिताय इत्युक्त वत्सराज- वचनमाकण्ये राजा कुपितः प्राह त्वमेव राज्याधिप- तिः न तु सेवकः ॥ ः हे देव पुत्रका वध कहींगी भा नहीं है ऐसें कहे हुए वत्सराजके वचनकों सुनके राजा क्लोधकरके .बोछा कि तूह्दी राज्यका अधिपति है सेवक नहीं है ॥ स्वाम्युक्ति यो न यतते स भृत्यों भत्यपाशकः ॥ तज्जीवनमपि व्यथेमजागठकुचाबिवेति ॥२७॥। स्वामीके कहें हुयेमें जो यतन नहीं करता है वह भृत्य




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