जिन्दगी के घेरे | Jindagi Ke Ghere
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
7.6 MB
कुल पष्ठ :
246
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
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दे जब कि वह नरेश की साथी है। संब कुछ दूर फिसिछता गया
हैं, पी लौंटेगा। बस जिन्दगी से जूझना दे किसी भॉति !
नदी ०४७०४ का
उसने कहा--'एक वात कहूँ नरेश १ लेकिन नंहीं
चंहूँगा ।”
क्यों ? कहो ने!
'सुनोगे तो हँस दोगे या विगढ़ जाओंगे !'
'नहीं, कुछ नहीं कहूँगा !'
वह झिझकता हुआ बोला--*कलकत्ते में मुझे भी नौकरी दिला
दोगे ? मैं यहाँ नहीं रहना चाहती । मेरी मंने ऊब गया है
नरेश उसकी ओर आश्चय से देखैता रहा । बोला--'कछकत्ते
के लिए रतनपुर छोड़ देना चाहते हो ? यह धरती कछकत्ते से
सली है भाई ।'
पं यह नहीं कहता कि मुझे इससे नेह नहीं” ठेकिने मन जो
लदी ठगता । ऐसां छगता है जैसे बोशा है. जो ढोए जो रहा
हूँ । कितना सूना-सूना सा है यह गॉर्ब !'
वह मौन हो रहा । उसके भीतर जो था उसने कंह दिया ।
नरेश को पीड़ा हुई; इसछिए कि चह कछकत्ते को नददीं जानता ।
वह बोला--कठकत्ता क्या है, यदद तुम नहीं जानते शिवू ! फूसे
को आग की छपटों में जठते देखा है न ? कुछ ऐसा ही है बह
कठकत्ता और उस भाग को कोई बुझाता नहीं; हर एक देखता है
और देखता रद्द जाता है ।'
शिवनाथ ने सोचो, वह उसे नहीं छे जाना चाहता । अभी वह
जा भी तो नहीं सकेंगा, छेकिन जायेगा । नहीं तो यह गॉव उसे
काट खयेगा। इस घरती में उसका मन जो नहीं रमता !
गांड़ी थ रही थी । दोनों स्टेशन पर आ गए । टिकटघर पर
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