जिन्दगी के घेरे | Jindagi Ke Ghere

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Jindagi Ke Ghere  by रामेश्वर तिवारी - Rameshwar Tiwari

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( है? ) दे जब कि वह नरेश की साथी है। संब कुछ दूर फिसिछता गया हैं, पी लौंटेगा। बस जिन्दगी से जूझना दे किसी भॉति ! नदी ०४७०४ का उसने कहा--'एक वात कहूँ नरेश १ लेकिन नंहीं चंहूँगा ।” क्यों ? कहो ने! 'सुनोगे तो हँस दोगे या विगढ़ जाओंगे !' 'नहीं, कुछ नहीं कहूँगा !' वह झिझकता हुआ बोला--*कलकत्ते में मुझे भी नौकरी दिला दोगे ? मैं यहाँ नहीं रहना चाहती । मेरी मंने ऊब गया है नरेश उसकी ओर आश्चय से देखैता रहा । बोला--'कछकत्ते के लिए रतनपुर छोड़ देना चाहते हो ? यह धरती कछकत्ते से सली है भाई ।' पं यह नहीं कहता कि मुझे इससे नेह नहीं” ठेकिने मन जो लदी ठगता । ऐसां छगता है जैसे बोशा है. जो ढोए जो रहा हूँ । कितना सूना-सूना सा है यह गॉर्ब !' वह मौन हो रहा । उसके भीतर जो था उसने कंह दिया । नरेश को पीड़ा हुई; इसछिए कि चह कछकत्ते को नददीं जानता । वह बोला--कठकत्ता क्या है, यदद तुम नहीं जानते शिवू ! फूसे को आग की छपटों में जठते देखा है न ? कुछ ऐसा ही है बह कठकत्ता और उस भाग को कोई बुझाता नहीं; हर एक देखता है और देखता रद्द जाता है ।' शिवनाथ ने सोचो, वह उसे नहीं छे जाना चाहता । अभी वह जा भी तो नहीं सकेंगा, छेकिन जायेगा । नहीं तो यह गॉव उसे काट खयेगा। इस घरती में उसका मन जो नहीं रमता ! गांड़ी थ रही थी । दोनों स्टेशन पर आ गए । टिकटघर पर




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