श्तपिटकम न. ०४ | Satapitaka No.4

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Satapitaka No.4 by डॉ. रघुवीर सिंह - Dr Raghuveer Singh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भूमिका गणपत्तत्त्व द्वीपान्तर के शेव मत का प्रतिपादक ग्रन्थ है । वहस्पतितर्व में जहां मुख्य मुख्य तत्त्वों की गणना शऔर द्विविध परमतत्त्व चेतन भ्रदेतन पुरुष प्रकृति श्र उसके संयोग का रोचक हृष्टान्तों द्वारा स्पष्टीकरण कर शेव दर्शन के जिज्ञासुओं के लिए परिचय कराया गया था तो यहां गणपतितत्त्व में सुक्ष्मतापुवंक भरुवन श्ौर जन्म के परमरहस्य को समभाया गया है । शिवपद श्रौर शिवलोक सुसुक्षु के लक्ष्य हैं। शिवलिज्ञ महोत्तम है । चतुर्दशाक्षरपुष्प पूजा की सामग्री हैं। षडड्योग साधन है। ज्ञान श्रौर साधना के पश्चात्‌ ही तो मोक्ष मिलेगा । गरापत्ति जिन्हें गणाधिप श्रौर गणराज कहकर भटार शिव ने सम्बोधित किया है जिज्ञासु बुद्धिमावु श्रोता हैं । परमज्ञानमय दिव भटार उपदेदा के रूप में शव दर्शन के भण्डार का दिग्दव॑न करा रहे हैं । गरणापतितत्त्व का प्रस्तुत संस्करण सरस्वती-विह्वार नई दिल्‍ली के संग्रहालय में सुरक्षित ताडपत्र पर लिखे हस्तलेख पर श्राधृत है । इसके पत्रों की संख्या ३७ है जिनके दोनों श्रोर ४ ४ पक्तियों में काली मसी से सुस्पष्टरूपेण ग्रन्थ लिखा गया है । हाँलण्ड के द्वीपान्तर के ग्रन्थों के लिए प्रसिद्ध लाइडचु विदवविद्यालय के पुस्तकालय के सुचीपत्र में इस ग्रव्थ का कोई हस्तलेख नहीं हैं। परिणामतः केवल इसी एक हस्तलेख के श्राधार पर इस महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ का सम्पादन किया गया है। यदि इसके भ्रन्य हस्तलेख होते तो निश्चय ही इलोक ४१-५३ तक के पारिभाषिक शब्द शुद्ध करने में सुविधा होती । हस्तलेख का उपसंहार इस प्रकार है--पुपुतु सिनुरतु रि दिन। च । व । माघस्य ॥1०॥। तहुदु १९५३ ॥ तित्यं पनजम्बत्‌ बब्जहेंडूदु ॥ द्रवेच्‌ इ गुस्ति प्रब्कलू तकसु ॥०11०।। टिप्पण--इन्न्शरीमादु। गुस्तिनट बालि के वेद्यों की उपाधि । प्रब्केंलू-न्छोठे से गांव का राज्य द्वारा नियुवत श्रधिकारी । यह प्रदेश के सुखिया पुद्धव के शभ्रधघीन होता है ॥ तक्यु -क्लुंकुड स्वप्रज ( ्ााटतणा) में एक गांव का नाम ॥। राब्द वर्णयोग--गरपतितत्त्व में ६० संस्कृत दलोक हैं । तथा च उन पर कवि में विस्तृत टीका श्रौर व्याख्या है । कवि-भाग संस्कृत इलोक की अ्रक्षरश व्याख्या अथवा स्पष्टीकरण न करते हुए विस्वृत _विवेचना करता है । प्रथम इलोक में गणपति शिवजी से प्रदनमात्र करते हैं परन्तु लम्बी टोका में जन्म _ श्रौर भ्रुवन के रहस्य को समभने में पाठक तल्‍लीन हो जाता है । इस ग्रन्थ का एकमात्र उपलब्ध हस्तलेख होने के कारण पाठान्तरों के अभाव में प्रचलित कवि दाब्दों को उसी प्रकार रखते हुए केवल. _ पारिभाषिक शब्दों के यथासम्भव शुद्ध रूप कर दिए हैं । यथा संसिप्त शब्द जो कि संस्कृत संक्षिप्त...




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