जीवन कण | Jiwan Kan

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Jiwan Kan by डॉ. रघुवीर सिंह - Dr Raghuveer Singh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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बह प्रतीक्षा ६ सरसी उद्वेग भरी इत संस बही उत वेगवतीं हु बयार | हत॒ संचित-कर्म-निपात मयो उतपात पुरातन को पततभार्‌ | उमये रस-राग-भरे सतमाव मयो उत प्र्लव-पुज-उमार । हरिआवन की चस्वा इत त्यो मधु-ऋआगम की कलकट-पुकार । वह आ रहा है | आरा रहा है |! आ रहा है !!! और बरसों की, नहीं, नहीं, जीवन-भर की प्रतीक्षा का अत होगा । परंतु दस- का आतिथ्य, उसके लिए भोजन, उसके त्िए निवास...... ... . अवलोकिबो हे हरि के मग को चलिबो बन में हरि-खोजन है । ग्रह-काज सदा हरि श्रास्तन हत सरोजन ही कौ सेयोजन हे । हस्मिग के जोग सेजोवन कौ फल-चाखिबो ही इक भोजन है । तन है हरिपॉयन पारिबे को सवरी की न ओर परोजन हे । ओर उमके लिए उत्सुकता इतनी बढ़ी, विकत्षता इ५ हृद तक पहुँच गईं कि उसे स्वेत्र उसी फा भ्रम होन लगा। इसी कारणु--




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