साधन संग्रह [प्रथम खण्ड] | Sadhan Sangrah [Pratham Khand]

Sadhan Sangrah [Pratham Khand] by पं. भवानीशंकर शर्मा त्रिवेदी - Pt. Bhavnashankar Sharma Trivedi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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घर्स 1 ३ ज केवल र्वाथ निमित नहीं करना चाहिये। स्मरण रखना चाहिये कि १2-- न सूतो न सविष्योधस्ति न च धर्सोइस्ति कश्चन । यो$सयःसवेभूतानां स श्राप्नोत्यमय पद्सू ॥ ८ ॥ दर सद्दासारत शास्ति पते सध्याय २६ंप । - जो सबों को अभय दान देता है छिसी को हानि नहीं करता है ) वह असय पद्वी को प्राप्त करता है और ऐसा धर्म न पूर्व का में कोई हुआ और स सारे होगा ! जीवित॑ यः स्वयं चेच्छेतू कथं सो$न्य॑ प्रघातयेतू यद्यदात्मानि चेच्छेत तत्परस्यापि चिन्तयेतू ॥ २१ ॥ सलह्भारत शान्ति पे खध्वचाय २9८ 1 जो जाप जोना चाइता है. चढ दूसरे को कैसे घात करता है, जैसा अपने लिंचे इच्छा चारे वैसा दूसरे के लिये भी करना चाहिये । क्योंकि :-- प्राणा यथात्सनो$सीपा झुतानासपि ते तथा ) आत्मौपस्येन भूतेषु दयां कुबन्ति साधवः ॥ दितोपदेश । प्राण जैसा अपने को प्रिय है बैसा दूसरे को भी प्रिय है, इस लिये साधु लोग अपने ऐसे दूसरे को भी जान के सर्बो पर दया फरते हैं । जो कुछ दासि हस छोगों की दूसरे के द्वारा होती है वह हम . छोगों के भांतरिक दषाउ कुशकारी स्वसाव का प्रतिफल है. हम छोग दूसरे के शययु हैं अतुरव ये भी हसलोगों के शत होते हैं । हम लोग आाखेट के सुख से छिये, पेट मरने फे लिये तथा अल्यान्य व्यर्थ कार्य्यों के लिये संसार में प्राणियों का नाश करते हैं, अतएव थे भी हमसोगों की हानि रुरने में लाध्य होते हैं और उसो कारण हम लोगों को सपंभय, व्याघलय इत्यादि २ होते हैं। जो पुरुष किसी की किसी प्र कार फी हानि करना नहीं चाहता और पघ्राणि- माल में सवोत्ससाव मालकंर उन पर प्रेस और दया रखंतां है




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