कल्याण-कुञ्ज [भाग २] | Kalyan-Kunj [Part 2]

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
श्रेणी :
Kalyan-Kunj [Part 2] by

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
कट्याण-कुज भाग २ श्२ प्शिव” यह नहीं कहता कि सेवा न करो, सेमा अवश्य वरो। मक्तिपूर्वक करो, योग्य अगसर प्राप्त होनेपर सर्वत्र अ्पण करनेंके छिये भी तैयार रहो न उत्तम-से-उत्तम वस्तुको उनकी एक जबानपर छुटा दो । परन्तु अपने अज्ञानसे, मोदसे; सच्चे साघुओंको आराम पहुँचानेके नामपर उन्हें तग न करो; उन्हें कट मत पहुँचाओं, उनके आदर्दाको न करनेका प्रयास मत करो । उनमें त्यागफा जो परम भाकपषण है, जिससे खिंचकर सहों नर-नारी उनकी से्रामं आते हैं और अपने कन्पाणका पथ प्राप्त करते हैं, उस त्याग आकर्षणकों नष्ट नकरो। ३ श्र रे श्र इसी प्रकार तुम्हारा कोई भी सम्ब्न्वी, भाई, पुत्र; मित्र यदि सयमका आदर्श श्रहण करे तो मोहवश, उसे आराम पहुँचानेकी चेथसे संयमके पवित्र पपसे ठौटाकर भोगके नरकप्रद पथपर मत ठाओ । भोगमें आरम्भमं सुख दीखता है परन्तु उसका परिणाम बहुत ही भयानक है; और त्याग यद्यपि पहले भीपण लगता है परन्तु उसका फड बहुत ही मीठा है । असरी भोग--सच्वे सुखका भोग, दिव्य जीयनका भोग ती इस स्थागत्ते ही मिठता है, इन्दियोंकि तुच्ठ निपय- भोगेफि त्याग, बह दुर्लभ भोग मिलता है; बह प८मानत्द मिलता है, जिसमें कहीं कोई विकार, अमाव, अपूर्णता या पिनाश नहीं है। जो नित्य है; सत्य है, सनातन ' है, घुव है, अपरिणामी है, अनन्त है, असीम है; अकठ है; अनिर्देदय है, अनिर्वचनीय है | यह भोग प्राप्त होनेपर फिर भोग और भगयानुमं भेद नहीं रहता । वस्तुतः ये एक ही वस्तुके दो नाम हैं । , नाएएिलेस्‍्डेलेकेेणणण




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now