कल्याण-कुञ्ज [भाग २] | Kalyan-Kunj [Part 2]
श्रेणी : धार्मिक / Religious
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
2.13 MB
कुल पष्ठ :
156
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)कट्याण-कुज भाग २ श्२
प्शिव” यह नहीं कहता कि सेवा न करो, सेमा अवश्य वरो।
मक्तिपूर्वक करो, योग्य अगसर प्राप्त होनेपर सर्वत्र अ्पण करनेंके
छिये भी तैयार रहो न उत्तम-से-उत्तम वस्तुको उनकी एक जबानपर
छुटा दो । परन्तु अपने अज्ञानसे, मोदसे; सच्चे साघुओंको आराम
पहुँचानेके नामपर उन्हें तग न करो; उन्हें कट मत पहुँचाओं, उनके
आदर्दाको न करनेका प्रयास मत करो । उनमें त्यागफा जो परम
भाकपषण है, जिससे खिंचकर सहों नर-नारी उनकी से्रामं आते
हैं और अपने कन्पाणका पथ प्राप्त करते हैं, उस त्याग आकर्षणकों
नष्ट नकरो।
३ श्र रे श्र
इसी प्रकार तुम्हारा कोई भी सम्ब्न्वी, भाई, पुत्र; मित्र यदि
सयमका आदर्श श्रहण करे तो मोहवश, उसे आराम पहुँचानेकी
चेथसे संयमके पवित्र पपसे ठौटाकर भोगके नरकप्रद पथपर मत ठाओ ।
भोगमें आरम्भमं सुख दीखता है परन्तु उसका परिणाम बहुत ही
भयानक है; और त्याग यद्यपि पहले भीपण लगता है परन्तु उसका
फड बहुत ही मीठा है । असरी भोग--सच्वे सुखका भोग, दिव्य
जीयनका भोग ती इस स्थागत्ते ही मिठता है, इन्दियोंकि तुच्ठ निपय-
भोगेफि त्याग, बह दुर्लभ भोग मिलता है; बह प८मानत्द मिलता है,
जिसमें कहीं कोई विकार, अमाव, अपूर्णता या पिनाश नहीं है।
जो नित्य है; सत्य है, सनातन ' है, घुव है, अपरिणामी है, अनन्त
है, असीम है; अकठ है; अनिर्देदय है, अनिर्वचनीय है | यह भोग
प्राप्त होनेपर फिर भोग और भगयानुमं भेद नहीं रहता । वस्तुतः ये
एक ही वस्तुके दो नाम हैं । ,
नाएएिलेस््डेलेकेेणणण
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