प्राचीन भारत के प्रसाधन | Pracheen Bharat Ke Prasadhan

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Pracheen Bharat Ke Prasadhan by अत्रिदेव विद्धालंकार - Atridev Viddhalankar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पहला अप्याय सृष्टि रचनाके प्रारम्भसे ही सभी देशों तथा प्राय समस्त युगोंके मानवोंमें प्रसाधनकी प्रवृत्ति पाई जाती है । एक त्यागी महात्मा जिसे दुनियासे कोई मतलब नहीं और जिसकी दैनिक आवश्यकताएँ बहुत ही थोड़ी हैं वह भी अपने शरीरकी ओरसे निरपेक्ष नहीं । वह नित्यप्रति स्नान करता है जटा-जूटको स्वच्छ करता है और उनको एक क्रम-विशेष से बाँधता है । अपढ़ और अविकसिंत व्यक्ति जिसका सारा जीवन शिकारमें जाता है वह भी शिकारमें मिली वस्तुओंसे अपने शरीरकों अछंक्वत करता है । नागरिक जीवनसे दूर जंगछमें रहनेवाछी कन्याएँ वनमें प्राप्त होनेवाछी वस्तुओंसे शरीरकों सजाती हैं । कविगुरु कालिदासके काव्य और नाटक की पावंती तथा शकुन्तलाका प्रसाधन बनलता और वनपल्लवोंसे दही होता था । शकुन्तलाने इच्तका वल्कल पहिने ही सम्राट दुष्यन्तके चित्तको आकुट्ट कर छिया था |. १ जाकुटिलाय्रेण स्कन्घावलस्बिना कुन्तलभारेण केशरिणसमिव गज- मदमलिनीक्तेन केशरकलापेनोप नेतम . . . . . . . . - - -- सुजगफणासणेरापाटले- रंशुमिरालोहितीक़तेन. पणंशयनाभ्यासलझपझ्चरागेणेव ... वामपार्श्वेन विराजमानस्‌ ... अचिरहतगजकपोलयूहीतेन सप्तच्छदपरिमलवा हिना कृष्णागुरुपछ्ेनेव सुरभिणा मदेन कृताज्रागम ..कादस्बरी कथामुख--- शवरसेनाधिपतिवणन । २ क. चौमें केनचिदिन्दुपाण्डुतरुणी माज्ञर्यसाविष्कतस । निष्व्यतश्चरणोपभोगसुकभो छाक्षारसः केनचित्‌ ॥-शाकुन्तछ ४1५ ख. कृत न क्णॉपिंतबन्घधनं सखे शिरीषमागण्डविलस्बिकेशरसू ॥ -शाकुन्तछ द1१८ ग इयमधिकसनोज्ञा वस्कलेनापि तन्वी किमिव मघुराणां मण्डनं नाकृती नाम ॥-शाकुन्तछ । १1१६




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