दर्पण का व्यक्ति | darpan ka vykati
श्रेणी : काव्य / Poetry
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
3.1 MB
कुल पष्ठ :
118
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)दर्द को न पहचानेगी तो कौन पहचानेगा ? पार्वती ने वेटी को देखा
तो सब कुछ समझ गई और भोले वावा से बोलीं, “कितनी दुखी है
यह बच्ची ! इसका सुहाग लौटा दो ।
भोले वावा हंस पड़े । बोले, “पार्वती, तुम नारियों का दिल
वड़ा कोमल होता है। लेकिन तुम नहीं जानतीं कि इस लड़की ने
कितना वड़ा अपराध किया है।”'
पार्वती ने उत्तर दिया, “जानती क्यों नहीं महाराज ! लेकिन
साथ ही यह भी जानती हूं कि वह अपराध अनजाने में हुआ है और
फिर उसकी कितनी सजा भुगत चुकी है वेचारी । हर वात का अन्त
होता है । कया इसकी पीड़ा का अन्त नहीं होगा ? नहीं, आपको मेरी
वात माननी ही होगी । इसके पति को जीवित कर दीजिए ।”'
शंकर ने उसी क्षण अपनी अंगुली काट डाली । उसमें से चूकर
अमृत की कुछ वूंदें वेटी के पति के शव पर पड़ीं । वह ऐसे उठ बैठा
जैसे हम सवेरे सोकर उठते हैं । काश 1! आजकल भी शिव-पावती
इस दुनिया में आते होते तो देख पाते कि उस बेटी जैसी एक और
नारी मृत पति को लेकर नहीं, वत्कि एक जीवित पति को लेकर रो
रही है । मांग में सिन्टूर भरकर भी वह सुद्दाग से वंचित है । ***
लेकिन वीसवीं सदी में शंकर-पार्वती इस प्रकार नहीं घूमते ।
इसी लिए ये लम्वे तीस वर्ष उनकी प्रतीक्षा करते-करते वीत गए हैं ।
मेरा सुहाग मेरे सामने रहकर भी मेरा न हुआ । होता भी कैसे !
कहानी की उस वेटी की तरह तो मेरी कहानी नहीं है । इसीलिए
नियति ने मेरे जीवन के चारों ओर जो ताना-वाना बुना है, वह
विल्कुल ही अलग है। मेरा जीवन व्यर्थ है। लेकिन क्यों ? क्यों उस
सर्वेशक्तिमान् प्रभु ने एक॒मिरपराधघ के जीवन को निरर्थक बनाया
है? क्यों उसे दुहरी-तिहरी पीड़ा शुगतने पर विवश किया है?
मैं फिर वहक गई । तुमने मुझे सामीप्य का सुख नहीं दिया, पर
दर्पण का व्यक्ति ११
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