वैदिक संस्कृति का विकास (१९५७) अ क ४५४३ | Vaidik Sanskriti Ka Vikas (1957) Ac 4543

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Vaidik  Sanskriti  Ka  Vikas  (1957)  Ac 4543 by तर्कतीर्थ लक्ष्मण शास्त्री - tarktirth lakshman shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कि भारतीय संस्कृतिभी उसी राहपर चलती इुई दिखाई दे रही है। पर भारतीय संस्कृ- तिके प्रलयके झशुभ चिह्न अलग ही हैं । प्रथम तथा मूलगामी दुश्बिह्ठ है पिणडपोषणक लिए श्ावश्यक श्रर्थकरी प्रबत्तिका झभाव याने झर्थात्पादनके लिए, श्रावदयक श्रथकरी प्रबत्तिका श्रभाव । श्र्थात्पादनके लिए. नितान्त झावश्यक अदग्य उत्साह ही वास्तत्रमं प्राणिमाजकी जीव-घारणु'की समर्थताका शुभ लक्षण है । दुर्भाग्यस भारतीय राष्रों में उक्त प्रवत्ति बहुत ही मन्द दिग्वाइ दती है । मानव स्वभावतः श्रपूर्ण जीवन-साघनोंसे निर्मित प्राणी है । श्रन्य जीव-सुष्टिक लिए. निर्माणकी श्रावश्यकता नहीं है; संचयकी है। मानव ही ऐसा प्राणी है जो निर्माण किए वंगेर जीवनयापन नहीं कर सकता है । भारत श्रपने लिए, पर्याप्त ्वन्नका उत्पादन नहीं करता; पर्याप्त वस्त्र, पात्र तथा ग्रह श्रादि साधनोंका निर्माण नहीं करता । यह॒ परिस्थिति केवल वर्तमान समयकी ही विषादकारी कहानी नहीं हैं; गत शत वर्षीका यही श्र्थशास्त्र है श्रौर यह कहनेके लिए इतिहासिक प्रमाण पाए. जा सकते हैं कि सैकड़ों वर्षीका अर्थशास्त्र यही है । जो राष्ट्र अपनी प्राण रक्षाके लिए झावश्यक साधनों का पर्याप्त निर्माण नहीं कर सकता, या साघनेंका निर्माण करनेवाली मज़्ल प्रवृत्ति- योंको प्रदर्शित नहीं कर पाता उस राष्ट्रकी संस्कृति मुमू्ु है, यह झनुमान स्वाभा- विक रूपसे निकलता है । दूसरा झमजल चिह्न यह है कि गत सहसर वर्षोमें विदेशी झाक्रमणोंके सामने इस राष्ट्रको और इस संस्कृतिको सदैव परास्त होना पड़ा है । इसका कारण यह है कि यहेँकि समाज-संगठनका तत्त्व राष्ट्रमे राजनीतिक सामर्थ्यका निर्माण कर- नेमें सहायक नहीं था । इस देशमें जो राज्य-संस्थाएँ विद्यमान थीं उन्हें श्नौर उन राज्योंको प्रजाका एकरूप, सम्पूण समर्थन कभी प्राप्त हुआ ही नहीं । क्तात्रघर्म जिन व्यक्तियोंका जन्म-सिद्ध व्यवसाय माना गया था वे भी एक विशाल राजनीतिक संगठनके संरक्तकके रूपमें उससे नित्य सम्बद्ध कदापि न रहे । राज- नीतिक दृष्टिकोणुस केन्द्रीय तथा एक-छुत्र राज्य-संस्थाएँ यहाँ बहुत थोड़े समय- तक टिकती थीं और शीघ्र ही विभिन्न, स्वयंपूर्ण, स्वतन्त्र राज्योंके खण्डोंमें इनका रूपान्तर हो जाता था । इन स्वतन्त्र राज्योंको, राज्योंकी झन्तगंत प्रभाश्मोंका एकरस याने सम्पूर्ण, संगठित समर्थन किसी भी समय प्राप्त न हो पाया । इसका कारण यहद है कि वर्णभेदके कारण इनमें * हम लढ़ाऊ हैं” इस तरहके शानका झमाव था । संसारके झन्य प्राचीन, मध्ययुगीन, तथा




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